Tuesday, November 30, 2010

बीत गया जो में वो कल हू

    बीत गया जो में वो कल हू
कल तक था जो कल कल कर बहती सरिता सा
आज समंदर से जा मिलने को बेकल हू
ढलते सूरज की स्वर्णिम लाली से रक्तिम
दूर क्षितिज में नजर आ रहा अस्ताचल हू
जिसकी यादे आ आ कर तडफा देती हे
में प्रियतम से प्रथम मिलन का  बीता पल हू
बार बार जो लहराती यादों के पत्ते
पुरवैया की मस्त हवा जैसा चंचल हू
पिया मिलन की ललक लिए जो बेसुध बैठी
अभिसारिका के तन का ढलता आँचल हू
जिसकी बूंद बूंद होती है पुण्य दायिनी
पतित पावनी सरिता का में गंगाजल हू
यादों के वृक्षों के आपस में टकराने,
से जो भड़की ,फ़ैल रही,वो दावानल हू
कब मन बन हनुमान लाँघ पायेगा इसको
में समुद्र सी खाई,पीड़ियो का अंतर हू
जिसके सीने भीतर लावा धधक रहा है
उस मृत ज्वालामुखी का में तो अन्तरतर हू
तुम चाहो तो मुझे छोड़ कर अलग फेंक दो
पर में तुमको न छोडूंगा वो कम्बल हू
ये सब बाते में तुमको क्यों सुना रहा हू
पहले भी था और आज भी में पागल हू

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