Tuesday, August 23, 2016

          लेकिन वक़्त गुजर जाता है

रोज सवेरे सूरज उगता ,और शाम को ढल जाता है
मैं कुछ भी ना करता धरता,लेकिन वक़्त गुजर जाता है 
मुझको कोई काम नहीं है, फिर भी रहता बड़ा व्यस्त हूँ
कई बार बैठे  ठाले  भी ,मै हो जाता  बड़ा पस्त  हूँ
दिनचर्या वैसी बन जाती, जैसी आप बना लेते है
छोटी  छोटी बातों में भी,ढेरों खुशियां पा लेते  है
अगर किसी से मिलो मुस्करा,तो अगला भी मुस्काएगा
अगर किसी को गाली दोगे ,गाली में उत्तर आएगा
बुरा मान कर ,किसी बात का,खुद का चैन चला जाता है
मैं कुछ भी ना करता धरता लेकिन वक़्त गुजर जाता है
कभी किसी से ,कोई अपेक्षा ,अगर रखोगे,पछताओगे
हुई न पूरी ,अगर अपेक्षा,अपने मन को तड़फाओगे
जिन्हें बदलना ना आता हो,उन्हें बदलना ,बड़ा कठिन है
बेहतर है तुम खुद को बदलो,यह आसान और मुमकिन है
जीवन मंथन से जो निकले ,गरल ,उसे शिव बन कर पी लो
जितनी भी अब उमर बची है ,नीलकण्ठ बन कर ही जी लो
सुख का अमृत पीने वाला ,तो हर कोई मिल जाता है
मैं कुछ भी ना करता धरता ,लेकिन वक़्त गुजर जाता है
बार बार जब हृदय टूटता ,असहनीय पीड़ा होती है
लोगों का व्यवहार बदलता ,देख आत्मा भी रोती है
कभी पहाड़ सा दिन लगता है,लम्बी लम्बी लगती रातें
यादों के जब बादल छाते ,होती आंसू की बरसातें
धीरे धीरे भूल गया हूँ  ,मेरे संग अब तक जो बीता
छोड़ पुरानी बातें कल की ,मैं हूँ सिर्फ आज में जीता
पर दुनियादारी बन्धन से ,छुटकारा कब मिल पाता है
मैं कुछ भी ना करता धरता ,लेकिन वक़्त गुजर जाता है
चेहरे पर आ रही नज़र अब ,बढ़ती हुई उमर की आहट
छोटी छोटी बातों में भी, अक्सर  होती है  घबराहट
होती कभी सवार सनक कुछ,कभी कभी जिद पर आता मन
लोग बात ये बतलाते है ,ये है सठियाने के लक्षण
तन की उमर अधिक जब बढ़ती,तो मन बच्चा हो जाता है
कभी कभी गुमसुम चुप रहता ,तो फिर कभी मचल जाता है
उगते और ढलते सूरज में,कभी नहीं बनता नाता है
मैं  कुछ भी ना करता धरता ,फिर भी वक़्त गुजर जाता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Thursday, August 11, 2016



बढ़ती उमर हुए हम टकले

ज्यों ज्यों बढ़ती उमर हमारी ,अजब मुसीबत हो जाती है
या तो फसल सिरों की पकती ,या फिर गायब हो जाती है
पक कर होते बाल श्वेत जो , तो उनको रंग भी सकते है
लेकिन हम बेबस होते जब ,सर से वो उड़ने  लगते है
बढ़ती हुई उमर जब हम पर ,अपना कसने लगे शिकंजा
कोई हमको टकला कहता ,कोई हमको कहता गंजा
बाल किसी के कम उड़ते है ,और किसी के उड़े अधिक है
कुछ कर्मो की,कुछ पुश्तैनी ,पर ये क्रिया स्वाभाविक है
बहुत पुरानी उक्ति है ,खल्वाट क्वचित ही निर्धन होते
घोटमोट और मुंड़ेमुँडाये ,अक्सर विद्वतजन है होते
जो कि भाल से ले कपाल तक ,एक तरह दिखते सपाट है
ओज और अनुभव से उनका,आलोकित होता ललाट  है
पत्नी आगे ,नाक रगड़ते ,वो गंजे  होते आगे  से
पत्नी जिनका सर सहलाती ,चाँद निकलती ,बडभागे से
कुछ लोगों के बाल उड़ा करते है ,मंहगाई के मारे
परिवार का बोझ उठाते ,गंजे होते ,कुछ बेचारे
कुछ के बाल उडा  करते है,अनुभवों वाली गर्मी से
कुछ गुस्से में पागल होकर,बाल नोचते ,हठधर्मी से
कुछ के पीछे छुपती चंदिया ,आगे  होते बाल घनेरे
 अभी जवानी  कायम,रहती गलतफहमियां उनको घेरे
पर सच ये है ,साथ पर तो  ,अक्सर सब होजाते टकले
उम्र उजागर हो जाती है ,इस गम में हो जाते पगले
और लोग इस पागलपन को ,ही अक्सर कहते सठियाना  
 कन्याएं जब अंकल कहती ,तब होता मन का पछतांना
रह रह कर वो काली जुल्फें ,सबको  बहुत याद आती है
ज्यों ज्यों बढ़ती उमर हमारी,अजब मुसीबत हो जाती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
यार ,तुम्हे कब अकल आयेगी

यार,तुम्हे कब अकल  आएगी
यूं ही भावना के चक्कर में,टूटे रिश्ते निभा रहे हो
वो गलती पर गलती करते,तुम माफ़ी दे भुला रहे हो
तुम इसको कर्तव्य समझते,वो कमजोरी माना करते
तुम भावुक,वो प्रेक्टिकल है,अपना मतलब साधा करते
ख़ुशी ख़ुशी यूं लुटते लुटते ,उमर तुम्हारी निकल जायेगी
यार,तुम्हे कब अकल आएगी
पड़ी सभी को अपनी अपनी ,बड़ी स्वार्थी है ये दुनिया
इतनी सीमित सोच बची है,बस मैं हूँ और मेरी मुनिया
तुम उस युग में पले बड़े हो,जब परिवार एक रहता था
एक दूजे के प्रति समर्पण ,श्रद्धा और विवेक  रहता  था
एकल परिवार का ये युग,परम्परायें  बदल जायेगी
यार,तुम्हे कब अकल आएगी
तुमको  पाला  ताईजी  ने ,चाची ने  है कपड़े  बदले
दादीजी ने तुम्हे मनाया ,जब भी तुम जिद पर आ मचले
तुमने अपने बड़े भाई के ,छोटे हुए  वस्त्र है  पहने  
भर जाती पूरी कलाई थी , राखी जब बांधे थी बहने
आत्मीयता पहले जैसी ,अब तुमको ना मिल पायेगी
यार,तुम्हे कब अकल आएगी
अब छोटा परिवार,सोच भी ,उतनी ही संकीर्ण हो गया
रिश्तेदारी ,अपनेपन का ,तानाबाना  जीर्ण  हो गया
लेकिन छूट नहीं सकते है ,तुमसे संस्कार तुम्हारे
कोई को कुछ भी पीड़ा हो,तुम हो आगे ,हाथ पसारे
शायद तुम न कभी बदलोगे,सारी दुनिया बदल जायेगी
यार,तुम्हे कब अकल आएगी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

Wednesday, August 10, 2016

पति पत्नी-संगत का असर

एक दूजे का एक दूजे पर  ,ऐसा मुलम्मा चढ़ता है
हो जाती सोच एक जैसी और प्यार चौगुना बढ़ता हो 
एक दूजे की बातें और इशारे वो ही  समझते है
बूढ़े होने तक  पति पत्नी ,भाई बहन से लगते है
अलग अलग दो कल्चर के,प्राणी मिल रहते बरसों संग
नो निश्चित एक दूसरे पर,चढ़ जाता एक दूजे का रंग
उनके चेहरे के हाव भाव ,उनकी बोली और चाल ढाल
एक जैसी ही हो जाती है ,जैसे एक सुर और एक ताल
वो एकाकार हुआ करते, इस तरह आदतें मिल जाती
उनको ही मालूम होता है ,किसको है क्या चीजें भाती 
यूं तो कहते ,ऊपरवाला ,खुद जोड़ी बना भेजता है
पर ये जोड़ी ,जब जुड़ जाती,आ जाती बहुत एकता है
एक दूसरे की छवि मन में ,ऐसी बसती ,कहीं कहीं
धीरे धीरे होने  लगता ,चेहरा, मोहरा, आकार वही
इतने सालों का मेलजोल,इतना तो असर दिखाता है
बूढ़े बुढ़िया का प्यार हमेशा ,कई गुना बढ़ जाता है
बच्चे अपने में मस्त रहे, ये आश्रित एक दूसरे पर
इसलिए बुढापे में तू तू ,मैं मैं भी कम होती अक्सर
आदत पड़ती संग रहने की,मन ना लगता एक दूजे बिन
 करते है याद ,जवानी की ,बातें,किस्से और बीते दिन
साथ साथ दुःख और पीड़ा में ,साथ साथ ही थकते है
बूढ़े होने तक  पति पत्नी ,भाई बहन से   लगते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Sunday, August 7, 2016

              साठ के पार

क्या हुए साठ के पार यार ,संसार बदलने  लगता है
तुम्हारे अपने लोगों का  ,व्यवहार बदलने लगता  है
रहते थे व्यस्त कभी दिन भर ,ऊंचे पद पर थे हम अफसर
दिन भर चमचों से घिरे हुए ,सुनते आये 'यस सर,यस सर '
पर हुए रिटायर तो लगता ,हम गिरे अर्श से धरती पर
 दिन भर बैठे कुछ काम नहीं ,इस तरह हुआ जीना दुर्भर 
वो सजी धजी ,प्यारी प्यारी,स्टेनो की मुस्कान नहीं
बच्चों के लिए मिठाई के ,डब्बे का नामोनिशान नहीं
ना सुख सरकारी गाडी का ,ना सुख नौकर ,चपरासी का
सब काम स्वयं ही निपटाना ,लगता है फंदा फांसी का
वो दीवाली पर ड्राई फ्रूट,फल ,वो डब्बे उपहारों के
रह रह कर हमे सताते है अब सूखे दिन त्योंहारों के
वो लन्च मंगाना मीटिंगों में,वो ट्रेवल भत्ता ,नकली बिल
अब चमचाहीन हुआ जीवन ,जीना लगता कितना मुश्किल
बस सूखी सी कोरी पेंशन,और वो भी तनख्वाह की आधी
होता इंसान रिटायर तो ,सचमुच हो जाती बरबादी
पहले दफ्तर से जब आते ,बीबीजी प्यार लुटाती थी
गरम चाय के साथ  पकोड़े ,दौड़ दौड़ कर लाती थी
अब कुछ मांगो ,कहती मुझको,करने देते आराम नहीं
रहते हो पड़े निठल्ले से ,करते रत्ती भर काम नहीं
ये अकड़ जाएंगे हाथ पैर ,तुम सैर सवेरे किया करो
चिपके रहते हो टी वी से ,सब्जी भाजी ,ला दिया करो
पहले उनको दे पाते थे ,कुछ घण्टे,प्यार उमड़ता था
वो हमपर मिटमिट जाती थी,जब प्यार का जादू चलता था
 पर अब हर दिन ,चौबीस घण्टे ,जब हम है उनके आसपास
मुश्किल से ही अब कभी कभी ,वो डाला करती हमे घास
कुछ असर उम्र का भी है ये,आ गया इस तरह ठंडापन
किस तरह गुजारें वक़्त ,नहीं कुछ भी करने में लगता मन
बच्चे भी बड़े हो गए है,देखी  अनदेखी  करते है
वो देते हमपर ध्यान नहीं,और कन्नी काटा करते है
यह साठ बरस की उमर एक,नदिया सी रेखा जीवन की
जिसके इस पार मौज मस्ती ,उस पार पोटली उलझन की
जब कि हम होते परिपक्व ,हममें मिठास है आ जाता
सुमुखियाँ जब अंकल कहती ,मन में खटास है छाजाता
हो जाते सपने तार तार ,जब प्यार बदलने लगता है
क्या हुए साठ के पार यार ,संसार बदलने लगता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'