Thursday, August 29, 2013

               है डालरों से हम

बचपन से जवानी  तलक ,पाबंदी थी लगी ,
                ना स्कूलों में ऊँघे और ना दफ्तरों में हम
पर जबसे आया बुढ़ापा ,हम रिटायर हुए,
                 जी भर के ऊंघा  करते है ,अपने घरों में हम
बीबी को मगर इस तरह  ,आलस में ऊंघना ,
                  बिलकुल नहीं पसंद है ,रहती  है डाटती ,
कहती है दिन में सोने से  ,जगते है  रात को,
                    सोने न देते ,सताते,है बिस्तरों में  हम
अब ये ज़माना आ गया ,घर के घाट के,
                     अंकल जी कहके लड़कियां ना घास डालती,
कितने ही रंग लें बाल  और हम फेशियल  करें,
                      उड़ने का जोश ला नहीं ,सकते परों में हम
टी वी से या अखबार से अब कटता वक़्त है,
                        घर का कोई भी मेंबर ,हमको न पूछता ,
पावों को छुलाने की बन के चीज रह गए,
                         त्यौहार,शादी ब्याह के ,अब अवसरों में हम
हम दस के थे,डालर की भी ,कीमत थी दस रूपये ,
                          छांछट का है डालर हुआ ,छांछट के हुए हम,
फिर भी  हमारे बच्चे है  ,इतना न समझते ,
                             होते ही जाते कीमती, है डालरों से  हम

मदन मोहन बाहेती'घोटू;  

Sunday, August 25, 2013

जवानी सलामत- बुढ़ापा कोसों दूर है

हम तो है ,कोल्ड स्टोरेज में रखे आलू ,
जब भी जरुरत पड़े,लो काम में,हम ताज़े है
ज़रा सी फूंक जो मारोगे ,लगेगे बजने ,
हम तो है बांसुरी ,या बिगुल,बेन्ड बाजे है
पुरानी चीज को रखते संभाल कर हम है ,
चीज 'एंटिक 'जितनी,उतना दाम बढ़ता है
बीबियाँ वैसे कभी पुरानी नहीं पड़ती ,
ज्यों ज्यों बढ़ती है उमर ,वैसे  प्यार बढ़ता है
वैसे भी दिल हमारा एक रेफ्रिजेटर  है ,
उसमे जो चीज रखी ,सदा फ्रेश  रहती है
हमारी बीबी सदा दिल में हमारे रहती ,
प्यार में ताजगी जो हो तो ऐश रहती  है
समय के साथ,जब बढ़ती है  उमर तो अक्सर,
लोग जाने क्यों ,खुद को बूढा समझने लगते
आदमी सोचता है जैसा,वैसा हो जाता ,
सोच कर बूढा खुद को बूढ़े  वो लगने लगते
सोच में अपने न आने दो उमर का साया,
जब तलक ज़िंदा हो तुम और जिंदगानी है
जब तलक है जवान मन और सोच तुम्हारा,
समझ लो ,तब तलक ही ,सलामत जवानी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
  जन्म दिवस पर

उम्र सारी बेखुदी में कट गयी
उस सदी से इस सदी में कट गयी
जमाने ने ,ढाये कितने ही सितम ,
छाई गम की बदलियाँ और छट गयी
कौन अपना और पराया कौन है,
गलतफहमी थी,बहुत,अब हट गयी
मुस्करा कर सभी से ऐसे मिले ,
दूरियां और खाइयाँ सब पट गयी
बचपने में ,जवानी में और कुछ ,
उम्र अपनी बुढ़ापे में बंट  गयी
लोग कहते एक बरस हम बढ़ गए ,
जिन्दगी पर एक बरस है घट गयी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
   बुढापे में बहुत सुख दे रही ........


    जवानी में भी जितना सुख नहीं  ,जिसने दिया मुझको,
     बुढापे में बहुत सुख दे रही ,बुढ़िया  ,मुझे  मेरी
 भले मन में उमंगें थी,और तन  में भी ताकत थी ,
मगर खाने कमाने में,बहुत हम व्यस्त रहते  थे
और पत्नी भी रहती व्यस्त ,घर के काम काजों में ,
रात होती थी तब तक ,दोनों ही हम पस्त रहते थे
         इधर मै थक के सो जाता ,उधर खर्राटे  भरती वो ,
         कभी ही चरमरा ,सुख देती थी,खटिया  मुझे मेरी
         जवानी में भी जितना सुख नहीं ,जिसने दिया मुझको ,
          बुढ़ापे में बहुत सुख दे रही बुढ़िया  मुझे मेरी
बहुत थोड़ी सी इनकम थी,बड़ा परिवार पलता था,
बड़ी ही मुश्किलों से,बच्चों को ,हमने पढ़ाया था
काट कर पेट अपना ,ध्यान रख कर उनकी सुविधा का,
बड़े होकर ,कमाए खूब ,इस काबिल बनाया  था
            तरक्की खूब कर बेटा हमारा ख्याल रखता है,
            बड़ी चिन्ता  से करती याद है,बिटिया मुझे मेरी
             जवानी में भी जितना सुख नहीं ,जिसने दिया मुझको,
            बुढापे में में बहुत सुख दे रही ,बुढिया ,मुझे मेरी
आजकल मै हूँ,मेरी बीबी है ,फुर्सत में हम दोनों,
इस तरह हो गए है एक कि दोनों  अकेले  है
धूमते फिरते है मस्ती में ,रहते प्यार में डूबे ,
उमर आराम की ,चिंता न कुछ है ना झमेले है
                कभी तलती पकोड़ी है ,कभी फिर खीर और पूरी ,
                खिलाती ,प्रिय मेरा खाना ,बहुत बढ़िया ,मुझे डेली
                 जवानी में भी जितना सुख नहीं ,जिसने दिया मुझको,
                 बुढ़ापे में बहुत सुख दे रही , बुढ़िया ,मुझे मेरी

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

          प्यार का गणित

प्यार करने में दर्जा माँ का ,है सबसे अधिक ऊपर ,
गर्भ से जब तलक ज़िंदा ,तुम्हारा ख्याल रखती है
पिताजी भी है करते प्यार ,पर थोड़े कड़क होते ,
मगर उतना नहीं,जितना कि माता प्यार करती है
प्यार करते है ,भाई बहन भी,जब तक न हो शादी,
मगर उपरान्त शादी के ,बदल जाता गणित सब है
और फिर जबसे आजाती है बीबी ,जिंदगानी  में,
टॉप पर प्यार करने की ,बीबियाँ जाती चढ़ अब है
बाद में ,बच्चे होते,वो भी तुमको प्यार करते है,
मगर जब शादी करके ,जाता है बस,उनका अपना घर
प्यार में अपनी बीबी के ,तुम्हे देते भुला बेटे,
मगर देखा गया है ,ख्याल रखती,बेटियां अक्सर
प्यार करते है बाकी और भी ,पर औपचारिक है,
लिमिट में ही करते प्यार तुमसे,दोस्त जो सारे
बुढापे में,तुम्हारा ख्याल रखती ,सिर्फ बीबी है ,
यही होता गणित है प्यार का  ,संसार में प्यारे

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Sunday, August 18, 2013

          आजकल थकने लगे है

आजकल थकने लगे है
लगता है पकने लगे है
जरा सा भी चल लिए तो,
दुखने अब टखने लगे है
कृष्णपक्ष के चाँद जैसे ,
दिनोदिन   घटने लगे है
विचारों में खोये गुमसुम,
छतों को तकने लगे है
नींद में भी जाने क्या क्या,
आजकल बकने लगे है
खोखली सी हंसी हंस कर,
गमो को ढकने लगे है
स्वाद अब तो बुढापे का ,
रोज ही चखने  लगे है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
     तुम वैसी की वैसी ही हो

जब तुम सोलह सत्रह की थी,कनक छड़ी सी सुन्दर थी ,
हुई बीस पच्चीस बरस की ,बदन तुम्हारा गदराया
फिर मेरे घर की बगिया में ,फूल खिलाये ,दो प्यारे,
और ममता की देवी बन कर ,सब घर भर को महकाया
रामी गृहस्थी में फिर ऐसी ,बन कर के अम्मा,ताई
तुम्हारे कन्धों पर आई,घर भर की जिम्मेदारी
रखती सबका ख्याल बराबर ,और रहती थी व्यस्त सदा ,
लेकिन पस्त थकीहारी भी,लगती थी मुझको प्यारी
फिर बच्चों की शादी कर के ,सास बनी और इठलाई,
पर मेरे प्रति,प्यार तुम्हारा ,वो का वोही रहा कायम
वानप्रस्थ की उमर हुई पर हम अब भी वैसे ही हैं,
इस वन में मै ,खड़ा वृक्ष सा ,और लता सी लिपटी  तुम
तन पर भले बुढ़ापा छाया ,मन में भरी जवानी है ,
वैसी ही मुस्कान तुम्हारी,वो ही लजाना ,शरमाना
पहले से भी ज्यादा अब तो ,ख्याल मेरा रखती हो तुम,
मै भी  तो होता जाता हूँ,दिन दिन दूना ,दीवाना
वो ही प्यारी ,मीठी बातें,सेवा और समर्पण है ,
वो ही प्यार की सुन्दर मूरत ,अब भी पहले जैसी हो
वो ही प्रीत भरी आँखों में ,और वही दीवानापन ,
पेंसठ की हो या सत्तर की ,तुम वैसी की वैसी  हो

मदन मोहन बाहेती'घोटू' 
यादें- बचपन की 
कितनी बातें, कितनी यादें
उस हस्ते गाते बचपन की 
उस मिट्टी के कच्चे  घर की 
गोबर लिपे पुते आँगन की 
वो मिट्टी का कच्चा चूल्हा 
उसमें उपले और लकड़ियाँ 
फूंक फूकनी, आग जलाना 
और सेकना गरम रोटियाँ 
वो पीतल का बड़ा भरतीय 
चढ़ा दाल का जिसमें आदन
अटकन रख, कर टेड़ी थाली
रोटी दाल जीमतें थे हम
अंगारों पर सिकी रोटियाँ 
गरम, आकरी, सोंधी, फूली
टुकड़े चूर दाल में खाने 
की आदत अब तक न भूली 
त्योहारों पर पूवे पकोड़े
दहि बड़े और पूरी तलवा 
खीर कभी बेसन की चक्की 
और कभी आते का हलवा 
गिल्ली- डंडा, हूल गदागद
लट्टू घूमा खेलना कंचे 
बचपन के उन प्यारें खेलो 
की यादें न जाती मन से 
डंडा चौथ, बजाकर डंडे 
घर घर जा गुडधानी  खाना 
भूले से भी बिसर न पता 
बचपन का त्योहार सुहाना 
अमियाँ, इमली सभी तोड़ना
फेक लदे पेड़ों पर पत्थर 
घर में रखी मिठाई खाना 
चोरी- चोरी और छुपछुपकर 
बारिश में कागज की नावें 
तैरा, पीछे दौड़ लगाना
कभी हवा में पतंग उड़ाना 
बात बात पर होड लगाना 
रात पाँव दबवाती दादी 
और सुनाती हुमें कहानी 
विस्मित बच्चे, सुनते किस्से 
उड़ती परियाँ, राजा- रानी 
कुछ न कुछ प्रसाद मिलेगा
इसलिए जाते थे मंदिर 
शादी में जीमन का न्योता 
मिलता था, खिल जाते थे दिल 
पंगत में पत्तल पर खाना 
नुकती, सेव और गरम पूरियाँ 
कर मनुहार परोसी जाती 
कभी जलेबी कभी चक्कियाँ 
पतला पर स्वादिष्ट रायता
हम पीते थे दोने भर भर 
ऐसे शादी, त्योहारों में 
मन जाता था तृप्ति से भर 
पाँच सितारा होटल में अब 
शादी की होती है दावत 
एक प्लेट में इतनी चीज़ें 
गुडमुड़ खाना ,बड़ी मुसीबत 
भले हजारों का खर्चा कर,
मंहगा भोजन पुरसा जाता 
पर वो स्वाद नहीं आ पाता,
जो था उस पंगत मे आता 
रहते शहरों  के फ्लेटों में 
एसी, पंखें सभी यहाँ है 
मगर गाव के उस पीपल की 
मिलती ठंडी हवा कहाँ हैं 
वो प्यारी ताजी सी खुशबू 
यहाँ नहीं वो अपनेपन की 
कितनी बातें, कितनी यादें 
उस हस्ते गाते बचपन की 

मदन मोहन बहेती 'घोटू'
  मज़ा बचपन का बुढापे में .......

बुढापे में भी बचपन को ,बुला हम क्यों नहीं सकते
जरा खुल कर ,हंसी ठट्ठा ,लगा हम क्यों नहीं सकते
बरसती फुहारों में भीग करके ,नाच कर 'घोटू'
मज़ा बारिश के मौसम का ,उठा हम क्यों नहीं सकते
बना कर नाव कागज़ की,सड़क की  बहती नाली में,
तैरा कर ,भाग हम पीछे ,भला जा क्यों नहीं सकते
गरम से तपते मौसम में ,खड़े होकर के ठेले पर ,
बर्फ के गोले ,आइसक्रीम ,हम खा फिर क्यों नहीं सकते
मिला कर हाथ अपने नन्हे ,प्यारे पोते पोती से ,
हम उनके संग ,बच्चे फिर ,बन जाया क्यों नहीं सकते
रखा क्यों ओढ़ कर हमने ,लबादा ये बुजुर्गी का ,
वो बचपन के हसीं लम्हे ,हम लोटा क्यों नहीं सकते
जवानी के मज़े इस उम्र में ,तो लेना है मुश्किल,
मज़े बचपन के दोबारा ,उठा फिर क्यों नहीं सकते

मदन मोहन बाहेती'घोटू'