Tuesday, October 11, 2016

       करो संगत जवानों की

बुढापे में अगर तुमको,जोश जो भरना है जी में,
तरीका सबसे  अच्छा है ,करो सगत जवानों की
रहेगी मौज और मस्ती,उंगलिया सब की सब घी में,
तुम्हारे चेहरे पर छा जायेगी ,रंगत  जवानों  की
करेगी बात हंस हंस कर  ,हसीना नाज़नीं  तुमसे,
भले अंकल पुकारेगी ,तो इसमें हर्ज ही क्या है,
तुम्हारी सोच बदलेगी,जवां समझोगे तुम खुद को,
रखेगी,सजसंवर कर 'फिट',तम्हे सोहबत जवानों की
चढ़े परवान पर फिर से ,तुम्हारा जोश और जज्बा ,
तुम्हारे तन की रग रग में,जवानी फिर से दौड़ेगी ,
सफेदी सर की तुम्हारे,हो काली ,लहलहायेगी,
लौट फिर तुम में आएगी,वही हिम्मत जवानों की
उमर के फासले की जब झिझक मिट जायेगी तो फिर,
तुम्हारे अनुभवों  का लाभ ,पायेगी नयी  पीढ़ी ,
कभी तुम उनसे सीखोगे,कभी वो तुमसे सीखेंगे ,
तुम्हारा दिल भी खुश होगा ,यूं पा उल्फत जवानों की

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
बुढापा-एक सोच

जवानी  में तो  यूं  ही, सुहाना  संसार  होता है
उमर के साथ जो बढ़ता ,वो सच्चा प्यार होता है
बुढापा कुछ नहीं ,एक सोच है ,इसको बदल डालो ,
पुराना जितना , उतना  चटपटा  अचार होता है
न चिता काम की,फुरसत ही फुरसत ,मौज मस्ती है,
यही तो वो उमर है ,जब चमन  ,गुलजार होता है
ताउमर ,काम कर मधुमख्खियों सा,भरा जो छत्ता ,
बची जो शहद ,चखने का ,यही त्योंहार होता है
अपनी तन्हाई का रावण जला दो,मिलके यारों से,
जला दीये दिवाली के,दूर अन्धकार होता है
प्रभु में लीन होने से, पूर्व का पर्व  ये  सुन्दर,
हमारी जिंदगी में  ,सिर्फ बस एक बार होता है
यूं तो दिलफेंक कितने ही ,दिखाते दिलवरी अपनी,
निभाता साथ जीवन भर ,वही दिलदार होता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Sunday, September 18, 2016

पश्चाताप

मैंने गर्वोन्वित हो सबको किया तिरस्कृत ,
     मेरे माँ और बाप,बहन भाई थे अच्छे
जैसा मैंने किया ,मिला मुझको भी वैसा ,
     मुझको नहीं पूछते ,बिलकुल,मेरे बच्चे
मैंने कितने मन्दिर और देवता पूजे ,
      मातृदेवता,पितृदेवता भूला  गया मैं
वो जो हरदम ,मेरे आंसू रहे पोंछते,
      उनकी धुंधलाई आँखों को रुला गया मै
तीर्थयात्राएं की ,अन्नक्षेत्र खुलवाये ,
     जगह जगह पर मैंने करवाये भंडारे
लेकिन घर के एक कोने में गुमसुम बैठे ,
    जो मिल जाता ,खा लेते ,माँ बाप बिचारे
दीनो को कम्बल बंटवा ,फोटो खिंचवाए ,
     फटी रजाई ,माँ की लेकिन बदल न पाया
सच तो ये है ,मैंने जैसा ,जो बोया था ,
      आज बुढापे में,वैसा ही फल है पाया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
श्री गणेश उचावः

एक रिटायर हुए सज्जन
कर रहे थे गणपति बप्पा का आराधन
'हे बप्पा ,मै अब हो रहा हूँ रिटायर
अपनी संतानो पर रहूंगा निर्भर
तू उन्हें इतनी सदबुद्धि दे
कि वो अपने माँ बाप का ख्याल रखे
गणपति बप्पा बोले वत्स ,
ये संसार का नियम सदा से चला आता है
ज्यादा दिनों तक किसी का रहना ,
किसी को भी नहीं सुहाता है
तुम्ही मुझे बप्पा बप्पा कह कर
बड़े प्रेम से पूजते हो पर
डेढ़ दिन या तीन दिन ,
या ज्यादा से ज्यादा दस दिन में
मुझे विसर्जित देते हो कर
माँ का भी, नवरात्रों में ,
नौ दिन तक ही करते हो पूजन
और फिर कर देती हो ,
उसका भी विसर्जन
तो जब हम देवताओं के साथ ,
आदमी का ऐसा  व्यवहार है
तो ज्यादा दिन टिकने पर ,
अगर होता तुम्हारा तिरस्कार है
तो तुम्हे इसके लिए रहना होगा तैयार
क्योंकि बड़ा प्रेक्टिकल होता है ये संसार

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Friday, September 2, 2016

अवमूल्यन

अपने जमाने में ,
मात्र पांच सौ रूपये महीने की पगार से ,
अपने पूरे परिवार को पालनेवाला पिता ,
 अपने बेटे के साथ
पांच सितारा होटल में डिनर के बाद
जब वेटर को पांच सौ रूपये की ,
टिप देते हुए देखता है 
तो शंशोपज में पड़  जाता है कि ,
अपने बेटे की सम्पन्नता पर अभिमान करे
या अपने अवमूल्यन का करे अहसास

घोटू
अंतिम पीढ़ी

प्रियजन ,
हम हैं ,मानव प्रजाति के ,
वो लुप्तप्रायः होते हुए संस्करण
जिन्होंने बचपन में झेला है ,
अपनी पिछली पीढ़ी का कठोर,
अनुशासन और बन्धन
और अब झेल रहे है ,अगली पीढ़ी के ,
व्यंगबाण और प्रताड़न
हमारी पीढ़ी के ,
बस ,अब भग्नावशेष ही पड़े है
और हम अब,
विलुप्त होने की कगार पर खड़े है

घोटू

Thursday, September 1, 2016

        कब आएगी ?

लेटे लेटे ,मैं तो करता यूं ही प्रतीक्षा,
किन्तु नींद को जब आना है ,तब आएगी

सूरज अस्त हो गया ,तारे नज़र आ रहे ,
धीरे धीरे पसर रही रजनी  काली है
कृष्णपक्ष का चाँद दे रहा है संदेसा ,
रात अमावस की जल्दी आनेवाली है
मौन और स्तब्ध ,दिशाएँ सब की सब है
गहन तिमिर है और सब तरफ सन्नाहट है
धक् धक् करती धड़कन के स्वर ऐसे लगते ,
जैसे कोई के  पदचापों की  आहट  है
मैं बेचैन बहुत हूँ,बाहुपाश में लेकर ,
कब वो मेरी आंखों में आ बस जायेगी
लेटे लेटे मैं तो करता यूं ही प्रतीक्षा ,
किन्तु नींद तो जब आना है तब आएगी

यूं ही मौन ,अकेला ,निश्चल पड़ा हुआ हूँ,
मन्द हवा के झोंकों सी आती है यादे 
जीवन भर के कितने ही  खट्टे मीठे पल ,
कुछ यौवन के प्यारे से वो पल उन्मादे
बार बार पलकें झपका कर कोशिश करता ,
भूल जाऊं,पर रह रह कर वो तड़फाते है
करवट लेता हूँ तो कुछ ऐसा लगता है ,
बिस्तर में कुछ कांटे है ,चुभ चुभ जाते है
कब वह ठगिनी ,चुपके से आकर ,सहलाकर ,
मेरी पलको को,मेरा मन बहलाएगी
लेटे लेटे ,मैं तो करता ,यूं ही प्रतीक्षा,
किन्तु नींद को जब आना है ,तब आएगी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

Tuesday, August 23, 2016

          लेकिन वक़्त गुजर जाता है

रोज सवेरे सूरज उगता ,और शाम को ढल जाता है
मैं कुछ भी ना करता धरता,लेकिन वक़्त गुजर जाता है 
मुझको कोई काम नहीं है, फिर भी रहता बड़ा व्यस्त हूँ
कई बार बैठे  ठाले  भी ,मै हो जाता  बड़ा पस्त  हूँ
दिनचर्या वैसी बन जाती, जैसी आप बना लेते है
छोटी  छोटी बातों में भी,ढेरों खुशियां पा लेते  है
अगर किसी से मिलो मुस्करा,तो अगला भी मुस्काएगा
अगर किसी को गाली दोगे ,गाली में उत्तर आएगा
बुरा मान कर ,किसी बात का,खुद का चैन चला जाता है
मैं कुछ भी ना करता धरता लेकिन वक़्त गुजर जाता है
कभी किसी से ,कोई अपेक्षा ,अगर रखोगे,पछताओगे
हुई न पूरी ,अगर अपेक्षा,अपने मन को तड़फाओगे
जिन्हें बदलना ना आता हो,उन्हें बदलना ,बड़ा कठिन है
बेहतर है तुम खुद को बदलो,यह आसान और मुमकिन है
जीवन मंथन से जो निकले ,गरल ,उसे शिव बन कर पी लो
जितनी भी अब उमर बची है ,नीलकण्ठ बन कर ही जी लो
सुख का अमृत पीने वाला ,तो हर कोई मिल जाता है
मैं कुछ भी ना करता धरता ,लेकिन वक़्त गुजर जाता है
बार बार जब हृदय टूटता ,असहनीय पीड़ा होती है
लोगों का व्यवहार बदलता ,देख आत्मा भी रोती है
कभी पहाड़ सा दिन लगता है,लम्बी लम्बी लगती रातें
यादों के जब बादल छाते ,होती आंसू की बरसातें
धीरे धीरे भूल गया हूँ  ,मेरे संग अब तक जो बीता
छोड़ पुरानी बातें कल की ,मैं हूँ सिर्फ आज में जीता
पर दुनियादारी बन्धन से ,छुटकारा कब मिल पाता है
मैं कुछ भी ना करता धरता ,लेकिन वक़्त गुजर जाता है
चेहरे पर आ रही नज़र अब ,बढ़ती हुई उमर की आहट
छोटी छोटी बातों में भी, अक्सर  होती है  घबराहट
होती कभी सवार सनक कुछ,कभी कभी जिद पर आता मन
लोग बात ये बतलाते है ,ये है सठियाने के लक्षण
तन की उमर अधिक जब बढ़ती,तो मन बच्चा हो जाता है
कभी कभी गुमसुम चुप रहता ,तो फिर कभी मचल जाता है
उगते और ढलते सूरज में,कभी नहीं बनता नाता है
मैं  कुछ भी ना करता धरता ,फिर भी वक़्त गुजर जाता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Thursday, August 11, 2016



बढ़ती उमर हुए हम टकले

ज्यों ज्यों बढ़ती उमर हमारी ,अजब मुसीबत हो जाती है
या तो फसल सिरों की पकती ,या फिर गायब हो जाती है
पक कर होते बाल श्वेत जो , तो उनको रंग भी सकते है
लेकिन हम बेबस होते जब ,सर से वो उड़ने  लगते है
बढ़ती हुई उमर जब हम पर ,अपना कसने लगे शिकंजा
कोई हमको टकला कहता ,कोई हमको कहता गंजा
बाल किसी के कम उड़ते है ,और किसी के उड़े अधिक है
कुछ कर्मो की,कुछ पुश्तैनी ,पर ये क्रिया स्वाभाविक है
बहुत पुरानी उक्ति है ,खल्वाट क्वचित ही निर्धन होते
घोटमोट और मुंड़ेमुँडाये ,अक्सर विद्वतजन है होते
जो कि भाल से ले कपाल तक ,एक तरह दिखते सपाट है
ओज और अनुभव से उनका,आलोकित होता ललाट  है
पत्नी आगे ,नाक रगड़ते ,वो गंजे  होते आगे  से
पत्नी जिनका सर सहलाती ,चाँद निकलती ,बडभागे से
कुछ लोगों के बाल उड़ा करते है ,मंहगाई के मारे
परिवार का बोझ उठाते ,गंजे होते ,कुछ बेचारे
कुछ के बाल उडा  करते है,अनुभवों वाली गर्मी से
कुछ गुस्से में पागल होकर,बाल नोचते ,हठधर्मी से
कुछ के पीछे छुपती चंदिया ,आगे  होते बाल घनेरे
 अभी जवानी  कायम,रहती गलतफहमियां उनको घेरे
पर सच ये है ,साथ पर तो  ,अक्सर सब होजाते टकले
उम्र उजागर हो जाती है ,इस गम में हो जाते पगले
और लोग इस पागलपन को ,ही अक्सर कहते सठियाना  
 कन्याएं जब अंकल कहती ,तब होता मन का पछतांना
रह रह कर वो काली जुल्फें ,सबको  बहुत याद आती है
ज्यों ज्यों बढ़ती उमर हमारी,अजब मुसीबत हो जाती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
यार ,तुम्हे कब अकल आयेगी

यार,तुम्हे कब अकल  आएगी
यूं ही भावना के चक्कर में,टूटे रिश्ते निभा रहे हो
वो गलती पर गलती करते,तुम माफ़ी दे भुला रहे हो
तुम इसको कर्तव्य समझते,वो कमजोरी माना करते
तुम भावुक,वो प्रेक्टिकल है,अपना मतलब साधा करते
ख़ुशी ख़ुशी यूं लुटते लुटते ,उमर तुम्हारी निकल जायेगी
यार,तुम्हे कब अकल आएगी
पड़ी सभी को अपनी अपनी ,बड़ी स्वार्थी है ये दुनिया
इतनी सीमित सोच बची है,बस मैं हूँ और मेरी मुनिया
तुम उस युग में पले बड़े हो,जब परिवार एक रहता था
एक दूजे के प्रति समर्पण ,श्रद्धा और विवेक  रहता  था
एकल परिवार का ये युग,परम्परायें  बदल जायेगी
यार,तुम्हे कब अकल आएगी
तुमको  पाला  ताईजी  ने ,चाची ने  है कपड़े  बदले
दादीजी ने तुम्हे मनाया ,जब भी तुम जिद पर आ मचले
तुमने अपने बड़े भाई के ,छोटे हुए  वस्त्र है  पहने  
भर जाती पूरी कलाई थी , राखी जब बांधे थी बहने
आत्मीयता पहले जैसी ,अब तुमको ना मिल पायेगी
यार,तुम्हे कब अकल आएगी
अब छोटा परिवार,सोच भी ,उतनी ही संकीर्ण हो गया
रिश्तेदारी ,अपनेपन का ,तानाबाना  जीर्ण  हो गया
लेकिन छूट नहीं सकते है ,तुमसे संस्कार तुम्हारे
कोई को कुछ भी पीड़ा हो,तुम हो आगे ,हाथ पसारे
शायद तुम न कभी बदलोगे,सारी दुनिया बदल जायेगी
यार,तुम्हे कब अकल आएगी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
 

Wednesday, August 10, 2016

पति पत्नी-संगत का असर

एक दूजे का एक दूजे पर  ,ऐसा मुलम्मा चढ़ता है
हो जाती सोच एक जैसी और प्यार चौगुना बढ़ता हो 
एक दूजे की बातें और इशारे वो ही  समझते है
बूढ़े होने तक  पति पत्नी ,भाई बहन से लगते है
अलग अलग दो कल्चर के,प्राणी मिल रहते बरसों संग
नो निश्चित एक दूसरे पर,चढ़ जाता एक दूजे का रंग
उनके चेहरे के हाव भाव ,उनकी बोली और चाल ढाल
एक जैसी ही हो जाती है ,जैसे एक सुर और एक ताल
वो एकाकार हुआ करते, इस तरह आदतें मिल जाती
उनको ही मालूम होता है ,किसको है क्या चीजें भाती 
यूं तो कहते ,ऊपरवाला ,खुद जोड़ी बना भेजता है
पर ये जोड़ी ,जब जुड़ जाती,आ जाती बहुत एकता है
एक दूसरे की छवि मन में ,ऐसी बसती ,कहीं कहीं
धीरे धीरे होने  लगता ,चेहरा, मोहरा, आकार वही
इतने सालों का मेलजोल,इतना तो असर दिखाता है
बूढ़े बुढ़िया का प्यार हमेशा ,कई गुना बढ़ जाता है
बच्चे अपने में मस्त रहे, ये आश्रित एक दूसरे पर
इसलिए बुढापे में तू तू ,मैं मैं भी कम होती अक्सर
आदत पड़ती संग रहने की,मन ना लगता एक दूजे बिन
 करते है याद ,जवानी की ,बातें,किस्से और बीते दिन
साथ साथ दुःख और पीड़ा में ,साथ साथ ही थकते है
बूढ़े होने तक  पति पत्नी ,भाई बहन से   लगते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Sunday, August 7, 2016

              साठ के पार

क्या हुए साठ के पार यार ,संसार बदलने  लगता है
तुम्हारे अपने लोगों का  ,व्यवहार बदलने लगता  है
रहते थे व्यस्त कभी दिन भर ,ऊंचे पद पर थे हम अफसर
दिन भर चमचों से घिरे हुए ,सुनते आये 'यस सर,यस सर '
पर हुए रिटायर तो लगता ,हम गिरे अर्श से धरती पर
 दिन भर बैठे कुछ काम नहीं ,इस तरह हुआ जीना दुर्भर 
वो सजी धजी ,प्यारी प्यारी,स्टेनो की मुस्कान नहीं
बच्चों के लिए मिठाई के ,डब्बे का नामोनिशान नहीं
ना सुख सरकारी गाडी का ,ना सुख नौकर ,चपरासी का
सब काम स्वयं ही निपटाना ,लगता है फंदा फांसी का
वो दीवाली पर ड्राई फ्रूट,फल ,वो डब्बे उपहारों के
रह रह कर हमे सताते है अब सूखे दिन त्योंहारों के
वो लन्च मंगाना मीटिंगों में,वो ट्रेवल भत्ता ,नकली बिल
अब चमचाहीन हुआ जीवन ,जीना लगता कितना मुश्किल
बस सूखी सी कोरी पेंशन,और वो भी तनख्वाह की आधी
होता इंसान रिटायर तो ,सचमुच हो जाती बरबादी
पहले दफ्तर से जब आते ,बीबीजी प्यार लुटाती थी
गरम चाय के साथ  पकोड़े ,दौड़ दौड़ कर लाती थी
अब कुछ मांगो ,कहती मुझको,करने देते आराम नहीं
रहते हो पड़े निठल्ले से ,करते रत्ती भर काम नहीं
ये अकड़ जाएंगे हाथ पैर ,तुम सैर सवेरे किया करो
चिपके रहते हो टी वी से ,सब्जी भाजी ,ला दिया करो
पहले उनको दे पाते थे ,कुछ घण्टे,प्यार उमड़ता था
वो हमपर मिटमिट जाती थी,जब प्यार का जादू चलता था
 पर अब हर दिन ,चौबीस घण्टे ,जब हम है उनके आसपास
मुश्किल से ही अब कभी कभी ,वो डाला करती हमे घास
कुछ असर उम्र का भी है ये,आ गया इस तरह ठंडापन
किस तरह गुजारें वक़्त ,नहीं कुछ भी करने में लगता मन
बच्चे भी बड़े हो गए है,देखी  अनदेखी  करते है
वो देते हमपर ध्यान नहीं,और कन्नी काटा करते है
यह साठ बरस की उमर एक,नदिया सी रेखा जीवन की
जिसके इस पार मौज मस्ती ,उस पार पोटली उलझन की
जब कि हम होते परिपक्व ,हममें मिठास है आ जाता
सुमुखियाँ जब अंकल कहती ,मन में खटास है छाजाता
हो जाते सपने तार तार ,जब प्यार बदलने लगता है
क्या हुए साठ के पार यार ,संसार बदलने लगता है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

 

Sunday, July 31, 2016

बदलाव

चुगते थे कबूतर जो दाना ,आकर के अटारी पर मेरी,
वो स्विमिंग पूल के तट पर जा ,निज प्यास बुझाया करते है
जो आलू परांठा खाते थे, घर के मख्खन की डली  डाल ,
वो डबल चीज डलवा कर के ,पीज़ा मंगवाया करते है
पहले माबाप जो कहते थे ,उससे शादी हो जाती थी ,
अब चेटिंग,डेटिंग कर के ही ,दुल्हन को लाया करते है
पहले मन्दिर में जाते थे ,श्रद्धा से भेट चढाते थे ,
अब तो रिश्वत का दस प्रतिशत ,मन्दिर में चढ़ाया करते है
पहले सुख देकर औरों को ,सन्तोष हृदय को मिलता था,
औरो की ख़ुशी से अब जलते ,और खुद को जलाया करते है
पहले जब शैतानी करते थे ,बच्चे , हम समझाते थे
हम बूढ़े क्या हो गए हमे,बच्चे समझाया  करते   है
बदलाव उमर में क्या आया ,बदलाव जमाने में आया ,
वो याद जमाने आ आ कर ,मन को तडफाया करते है
वो दिन भी हमने देखे थे,ये दिन भी हमने देख लिए ,
हम बीते दिन की यादों से मन को बहलाया करते  है

घोटू

Wednesday, July 27, 2016

जाने क्या क्या बातें आती

मेरे मन में जाने क्यों क्यों,जाने क्या क्या बातें आती
कोई मुदित कर देती मन को,कोई चुभन देती,तड़फाती

कुछ यादें रंगीन पलों की,कुछ यादें संगीन पलों की
कुछ ऐसी ही,इधर उधर की,कुछ गम्भीर हुए मसलों की
कुछ बचपन की नादानी की ,कुछ उस यौवन तूफानी की
कुछ शादी वाले बन्धन की ,और कुछ अपनी मनमानी की
कुछ मस्ती की,कुछ पत्नी के साथ बिताये मधुर क्षणों की
कुछ अपने से बेगानो की ,कुछ बेगाने से अपनों की
कभी हृदय प्रमुदित होता है ,कभी आँख ,आंसू बरसाती
मेरे मन में जाने क्यों क्यों ,जाने क्या क्या बातें आती

कभी गाँव वाले उस घर की ,कुछ उसकी छत,कुछ आंगन की
कुछ बारिश में ,छप छप करते,नाव तैराते ,उस बचपन की
कुछ अ ,आ  इ ई से लेकर ए बी सी डी  पढ़ने तक की
कुछ कॉलेज की,कुछ दफ्तर में ,इतना ऊपर बढ़ने तक की
वाह वाह करते चमचों की ,कुछ गाली देते निंदक की
चलचित्रों सी ,आँखों आगे ,घटनाएं आती अब तक की
कोई हंसाती,कोई रुलाती,और कोई दिल को तड़फाती
मेरे मन में ,जाने क्यों क्यों,जाने क्या क्या,बातें आती

जीवन के इस ढलते पल मे ,कौन हमारा ,कौन तुम्हारा
सभी व्यस्त ,अपने अपने में ,यादें ही है एक सहारा
यूं ही बस  यादों में डूबे ,कितना वक़्त गुजर जाता है
कभी नींद सी आ जाती है,मन सपनो से भर जाता है
वो दिन भी अब दूर नहीं है  ,थोड़े दिन के बाद एक दिन
यादों में खोये हम तुम भी ,बन जाएंगे  याद एक दिन
सबकी यही नियति होनी है ,पर ये बात समझ ना आती
मेरे मन में ,जाने क्यों क्यों ,जाने क्या क्या बातें आती

मदनमोहन बाहेती'घोटू'

Saturday, July 23, 2016

        किन्तु  सठियाया नहीं हूँ आजतक

पार कर ली उम्र मैंने साठ  की,किन्तु सठियाया नहीं हूँ आजतक
पहले जैसी ताजगी तो ना रही ,किन्तु मुरझाया नहीं हूँ आजतक 
वृद्धि अनुभव की हुई है इसलिए , लोग कहते हो गया मै वृद्ध हूँ
निभाने कर्तव्य अपना आज भी ,पहले जैसा पूर्ण ,मै कटिबद्ध हूँ
बड़ी कंकरीली डगर थी उम्र की ,राह में ठोकर लगी,कांटे मिले
कभी कोई ने दुलारा प्यार से ,तो किसी की डाट और चांटे मिले
झेलता झंझावतें तूफ़ान की ,नाव अपनी मगर मै खेता गया
 कभी धारा के चला विपरीत मै ,कभी धारा साथ मैं बहता गया
कई भंवरों में फंसा ,निकला मगर ,डूब मै पाया नहीं हूँ आजतक
पार करली उम्र मैंने साठ  की ,किन्तु सठियाया नहीं हूँ आजतक
सौंप दी पतवार तुमको इसलिए ,क्योंकि तुममे लगन थी,उत्साह था
 देख कर जज्बा तुम्हारे जोश का ,करके कुछ दिखलानेवाली चाह का
इसका मतलब कदाचित भी ये नहीं,हो गए है  पस्त मेरे  हौंसले
उतर सकता आज भी मैदान में ,वही फुर्ती और पुराना जोश ले
पोटली ,यह पुरानी तो है मगर ,अनुभव के मोतियों से है भरी
नहीं मन में मैल या दुर्भाव है ,इसलिए ही बात करता हूँ खरी
पीढ़ियों के सोच की यह भिन्नता,मैं समझ पाया नहीं हूँ आजतक
पार कर ली उम्र मैंने साठ की ,किन्तु सठियाया नहीं हूँ आजतक
प्रगति तुमने की,करो ,करते रहो ,प्रगति का पोषक हमेशा मैं रहा
संस्कृति ,संस्कार से भटके अगर,उसका आलोचक हमेशा मैं  रहा
तुम्हारी हर सफलता में खुश हुआ ,तुम्हारी पीड़ा लगी दुखदायिनी
किसी ने टेढ़ी नज़र तुमपर करी ,उस तरफ थी भृकुटियां मेरी तनी
कौन माली ,भला खुश होगा नहीं ,देख फलते ,फूलते उद्यान को
भूलना लेकिन न तुमको चाहये ,बागवाँ के किये उस अहसान को
है बड़ी मजबूत इस तरु की जड़ें,तभी हिल पाया नहीं हूँ आजतक
पार कर ली उम्र मैंने साठ की,किन्तु सठियाया नहीं हूँ आजतक

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
                   

Friday, July 8, 2016

ये उन दिनों की बात है

ये उन दिनों की बात है
जब रेडियो  पर हर बुधवार
बिनाका गीतमाला सुनता था सारा परिवार
फिर आये विविध भारती के  फ़िल्मी गाने
सुनने लगे हम सब ,होकर दीवाने
फिर गले में लटकाने  वाला ट्रांजिस्टर आया
नयी क्रांति लाया
फिर 'टू इन वन '
ने बदल डाला जीवन
छोटे छोटे कैसेटों में कितने ही गीत
लेते थे दिल को जीत
और फिर जब टीवी आया तो घरों  की,
छतों पर ,एंटीना सर उठाने लगे  
'कृषिदर्शन  से चित्रहार तक ,
सब टीवी से चिपके नज़र आने लगे
ये उन  दिनों बात है
जब टेलीफोन के काले चोगे ,
आदमी का स्टेटस दिखाते थे
डायल के छिद्रों में ,उँगलियों से ,
नंबर घुमाते घुमाते ,हम थक जाते थे
फिर भी मुश्किल से ही लाइन मिल पाती थी
टेलीफोन की घंटी  आवाज ,कितना लुभाती थी
फिर पेजर
 कुछ दिनों आया नज़र
पर जब से मोबाइल आया है
सबके मन भाया  है
ऐसी क्रांति छा  गई  है
कि दुनिया मुट्ठी में आ गई है
रोज रोज  परिवर्तन ,
जिंदगी को संजोते गए
दुनिया तरक्की करती गई ,
और हम बूढ़े होते गए
ये उन दिनों की बात है
जब गाँव में जगह जगह लाल डब्बे ,
मुंह खोले नज़र आते थे
जिनमे चिट्ठी डाल ,हम अपने
परिचितों को  संदेशे पहुंचाते थे
उनदिनों एक बहुप्रतीक्षित इंसान ,
रोज रोज आता था
खाकी वस्त्र पहने ,वो डाकिया कहलाता था
जब वो प्रेमपत्र और संदेशे लाता था
दिल को कितना आनंद पहुंचाता था
वो लिफ़ाफ़े में खुशबू  भरे खत
वो पैगामे मोहब्ब्त
जिन्हे बार बार चूम ,पढ़ा जाता था
मन को कितना सुहाता था
ये उन दिनों की बात है
जब न मोबाइल होता था
न ईमेल होता था
न व्हाट्सएप था ,
न चेटिंग का खेल होता था
दिन भर में पचासों बार
अपनी महबूबा को दिखलाना प्यार
और मोबाईल पर लाइव तस्वीर का दीदार
इतनी जानी पहचानी सी लड़की से ,
जब होता है विवाह
तो प्यार और हनीमून का सारा थ्रिल ,
हो जाता है तबाह
हम खुशनसीब है कि हम,
 उस जमाने में पैदा हुए थे
जब रेडिओ की सुई सेट करके ,
गाने सुने जाते थे
जब हम चूड़ी का बाजा बजाते थे
 जब कि छत पर चढ़ कर,
 एंटीना सेट किया जाता था
जिससे  साफ़ पिक्चर नज़र आता था
जब फोन का डायल घुमाते ,
थक जाया करती थी उँगलियाँ
जब पोस्टमेन का लाया लिफाफा ,
जीवन में भर देता था रंगीनियाँ
 आज भी मै जब वो पुराने ,सहेजे हुए ,
प्रेमपत्र पढ़ता हूँ तो नथुनो में ,
वो पुराने प्रेम की महक भर जाती है
वो भूली हुई दास्ताँ ,फिर से ज़िंदा हो जाती  है
और ये जब भी पढ़ता हूँ,बार बार  होता है
मुझे फिर से अपने प्यार  की याद आती है
वरना आज के युग में तो ,कल की की हुई चेटिंग ,
आज डिलीट हो जाती  है

मदन मोहन 'बाहेती 'घोटू'

Tuesday, July 5, 2016

     भगवान का ज्ञान

वो भगवान का बड़ा भक्त था
पूजापाठ और सेवा में रहता अनुरक्त था
रोज नहा धोकर ,मंदिर जाता था
बड़े विधिविधान से पूजा कर ,भजन जाता था
भगवान की मूरत पर,चढ़ावा चढाता था
नवरात्रों में भंडारा करवाता था
ख़ुशी खुशी सब खर्चा ,खुद ही उठाता था
देख कर के उसकी सेवाभाव का प्रदर्शन
एक दिन अचानक,प्रकट हो गए भगवन
बोले वत्स,तू जो ये मंदिर में ,
इतनी सेवाभाव दिखाता है
बोल क्या चाहता है ?
भक्त बोल प्रभु ,आपने ही मुझे बनाया है
आज मै जो कुछ हूँ,आपकी ही माया है
ये जो थोड़ा बहुत चढ़ावा चढ़ा ,
मैं आपका अभिनंदन कर रहा हूँ
ये सब तुम्हारा ही दिया हुआ है ,
तुम्ही को अर्पण कर रहा हूँ
 पूजा कर रहा हूँ,आपके गुण गा रहा हूँ 
अपने निर्माता के प्रति ,
अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ
आपका आशीर्वाद और कृपा चाह रहा हूँ
भगवान बोले वत्स ,
तू मंदिर में मुझे रोज माथा नमाता है
पर ये भूल जाता है
मैंने तो पूरे संसार का निर्माण किया है ,
पर तेरा एक और निर्माता है
वो तेरे पिता और माता है
क्या तूने कभी अपने ,
उन निर्माता का भी ख्याल किया है
जिन्होंने तुझे जनम दिया है
रोज रोज मंदिर में मुझे  पूजता है
क्या अपने बूढ़े माँ बाप के पास बैठ ,
दो मिनिट भी उनके हालचाल पूछता है
मेरी पत्थर की मूरत पर, परशाद चढाता है
और उन्हें दाने दाने को तरसाता है
तूने कितनी ही बार मुझ पर पोशाक चढ़ाई
पर क्या अपने पिताजी  के लिए ,
एक कमीज भी बनवाई
तुझे पता भी है कि उनके कपड़े,
कितने पुराने  और बदरंग हो रहे है
वो कितने फटेहाल है और तंग हो रहे है
तूने रोज  रोज मुझ पर कितने रूपये चढ़ाए है
क्या अपने माँ बाप को ,जेब खर्च के लिए ,
सौ रूपये भी पकड़ाए है
मातारानी की मूरत पर कितनी चूनर चढाता है
क्या कभी अपनी माँ के लिए ,
एक नयी साडी भी लाता है
तूने मुझपर चांदी का छतर चढ़ाया है
पर क्या कभी तुझे अपने पिताजी की ,
जीर्णशीर्ण छतरी बदलने का भी ख्याल आया है
तेरे माता पिता ,
जो है जीवित देवता,
उनकी उपेक्षा कर रहा है
और मुझ पत्थर की मूरत से ,
कृपा की अपेक्षा कर रहा है
 मैं तो पत्थर की मूरत  हूँ ,
न तेरा चढ़ावा मेरे काम का है,
न मैं तेरा चढ़ाया परशाद खाऊंगा  
अरे मूरख ,अपने बूढ़े माँ बाप की सेवा कर ,
अगर वो प्रसन्न होंगे ,
मैं अपने आप प्रसन्न हो जाऊँगा

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Tuesday, June 21, 2016

       शौक़ीन बुढ्ढे  

ये बुढ्ढे बड़े शौक़ीन होते है
मीठी मीठी बातें करते है मगर नमकीन होते है
ये बुढ्ढे  बड़े शौक़ीन होते है
यूं तो सदाचार के लेक्चर झाड़ते है
पर  मौक़ा मिलते ही ,
आती जाती लड़कियों को  ताड़ते है
देख कर  मचलती जवानी
इनके मुंह में भर आता है पानीे 
और फिर जाने क्या क्या ख्वाब  बुनते   है
फिर अपनी मजबूरी को देख ,अपना सर धुनते है
पतझड़ के पीले पड़े पत्ते है ,जाने कब झड़ जाएंगे
पर हवा को देखेंगे,तो हाथ हिलाएंगे
जीवन की आधी अधूरी तमन्नाये,
उमर के इस मोड़ पर आकर, कसमसाने   लगती है
जी  चाहता है ,बचीखुची सारी हसरतें पूरी कर लें,
पर उमर आड़े  आने लगती है
समंदर की लहरों की तरह ,कामनाएं,
किनारे पर थपेड़े खाकर ,
फिर  समंदर में विलीन हो जाती है
क्योंकि काया इतनी क्षीण हो जाती है
जब गुजरे जमाने की यादें आती  है
बड़ा तडफाती है
कभी कभी जब बासी कढ़ी में उबाल आता है
मन में बड़ा मलाल आता है
देख कर के मॉडर्न लिविंग स्टाइल
तड़फ उठता  होगा उनका दिल
क्योंकि उनके जमाने में ,
 न टीवी होता था ,ना ही मोबाइल 
न फेसबुक थी न इंटरनेट पर चेटिंग
न लड़कियों संग घूमना फिरना ,न डेटिंग
माँ बाप जिसके पल्ले बाँध देते थे
उसी के साथ जिंदगी गुजार देते थे
पर देख कर के आज के हालात
क्या भगवान उन्हें साठ साल बाद ,
पैदा नहीं कर सकता था ,ऐसा सोचते होंगे
और अपनी बदकिस्मती पर ,
अपना सर नोचते होंगे
उनके जमाने में
मिलती थी खाने में
वो ही दाल और रोटी अक्सर
उन दिनों ,कहाँ होता था,
पीज़ा,नूडल और बर्गर
आज के युग की लोगों की तो चांदी है
उन्हें दुनिया भर के व्यंजन  खाने की आजादी है
आज का रहन सहन ,
ये वस्त्रों का खुलापन
और उस पर लड़कियों का ,
ये बिंदास आचरण
उनके मुंह में पानी ला देता होगा
बुझती हुई आँखों को चमका देता होगा
ख्यालों से मन  बहला देता होगा
जब भी किसी हसीना के दीदार होते है
ये फूंके हुए कारतूस ,
फिर से चलने को तैयार होते है
अपने आप को जवान  समझ कर ,
बुने गए इनके सपने ,बड़े रंगीन होते है
ये बुढ्ढे ,बड़े शौक़ीन होते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'




  
सेंटिमेंटल बुढ्ढे

ये बुढ्ढे बड़े सेंटिमेंटल होते है
जो बच्चे उन्हें याद तक  करते,
उन्ही की याद में रोते  है
ये बुढ्ढे बड़े सेंटिमेंटल होते है
ये ठीक है उन्होंने बच्चों को पाला पोसा ,
लिखाया ,पढ़ाया
आगे बढ़ाया
तो ऐसा कौनसा  अहसान कर दिया
यह तो उनका कर्तव्य था ,जब उनने जन्म दिया
अपने लगाए हुए पौधे को ,सभी सींचते है ,
यही सोच कर कि ,फूल खिले,फल आएं
सब की  होती है ,अपनी अपनी अपेक्षाएं
तो क्या बच्चे बड़े होने पर ,
श्रवणकुमार बन कर,
पूरी ही करते रहें उनकी अपेक्षाएं
और अपनी जिंदगी ,अपने ढंग से न जी पाएं
उनने अपने ढंग से अपनी जिंदगी जी है ,
और हमे अपने ढंग से ,जिंदगी करनी बसर है
हमारी और उनकी सोच में और जीने के ढंग में ,
पीढ़ी का अंतर है
उनके हिसाब से अपनी जिंदगी क्यों बिताएं
हमें पीज़ा पसंद है तो सादी रोटी क्यों खाएं
युग बदल गया है ,जीवन पद्धति बदल गयी है
हम पुराने ढर्रे पर चलना नहीं चाहते,
हमारी सोच नयी है
और अगर हम उनके हिसाब से  नहीं चलते है,
तो मेंटल होते है
ये बुढ्ढे बड़े सेंटिमेंटल होते है
हर बात में शिक्षा ,हर बात में ज्ञान  
क्या यही होती है बुजुर्गियत की पहचान
हर बात पर  उनकी रोकटोक ,
सबको कर देती है परेशान
आज की मशीनी जिंदगी में ,
किसके पास टाइम है कि हर बार
उन्हें करे नमस्कार
हर बात पर उनकी सलाह मांगे
उनके आगे पीछे भागे
अरे,उनने अपने ढंग से  अपनी जिंदगी बिताली
और अब जब बैठें है खाली
कथा भागवत सुने,रामायण पढ़े
हमारे रास्ते में न अड़े
उनके पास टीवी है ,कार है
पैसे की कमी नहीं है
तो राम के नाम का स्मरण करें ,
उनके लिए ये ही सही है
क्योंकि जिस लोक में जाने की उनकी तैयारी है ,
वहां ये ही काम आएगा
साथ कुछ नहीं जाएगा
और ऐसा भी नहीं कि हम ,
उनके लिए कुछ नहीं करते है
'फादर्स डे 'पर फूल भेजते है ,गिफ्ट देते है
त्योंहारों पर उनके चरण छूते  है
और फंकशनो में 'वीआईपी 'स्थान देते है
हमे मालूम है कि हम उनके लिए कुछ करें न करें ,
वे हमेशा हमे आशीर्वाद बरसाते  रहेंगे
हमारी परेशानी में परेशान नज़र आते  रहेंगे
उनकी कोई भी बददुआ हमे मिल ही नहीं सकती ,
क्योंकि ये बड़े जेंटल होते है
ये बुढ्ढे बड़े  सेंटिमेंटल होते है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Saturday, May 7, 2016

                  परिवर्तन

साथ उमर के आया इतना परिवर्तन है ,
               हुई सूर्य की ऊर्जा ,चंदा की  शीतलता
धीरे धीरे ओज बदन का हुआ पलायन ,
            और हो गयी गुम सारी मन की चंचलता
 जिसे कभी घेरे रखती ,सुंदर ललनाये ,
             कई व्याधियों ने उस तन को घेर रखा है
उस जिव्हा को मिले खिचड़ी,दलिया खाने ,
            जिसने हरदम पकवानो का स्वाद चखा है 
बार बार करवट ले उनसे लिपटा करना ,
                याद बहुत आती वो रातें मधुर नेह की
बार बार उठ ,लगुशंका के निस्तारण को ,
                    जाने वाली रातें है, अब मधुमेह की
जो था कभी दमकता यौवन की कांति से,
                वह  कृषकाय शरीर ,झुर्रियों का पिंजर है
ज्योतिर्मय नयनो  पर मोटा सा चश्मा है,
               और दांत कितने ही,साथ छोड़ बाहर है 
कलुषित सारे कर्म,केश से श्वेत हो गए,
               अब तो स्मरण करते केवल रामनाम है
स्वर्ण हो गया ,रजत सूर्य ढलने के पहले ,
                  व्याप्त हो रही है शीतलता ,अविराम है
 थी कमनीय,कभी जो काया ,कहाँ खोगई ,
             अब खाते कम ,पचता कम,दिखता भी कम है
बची बहुत कम साँसें ,कम है दिन जीवन के ,
                 हाय बुढ़ापे  ,तूने कितने  , दिये   सितम  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'               

Monday, April 11, 2016

ढलती उमर -पत्नीजी की दो सलाहें 

साजन
सूरज जब ढलने वाला होता है ,
आशिक़ मिजाज हो जाता है
अपनी माशूकाएं बदलियों पर ,
अपनी दरियादिली दिखलाता है
किसी को सुनहरी चूनर से सजाता है
किसी को स्वर्णिम 'नेकलेस' पहनाता है
प्रियतम ,
अब तुम्हारी भी उमर ढल रही है
तुम भी ढलते सूरज की तरह ,
आशिकमिजाज बन जाओ
अपनी दरियादिली दिखलाओ
मै ,तुम्हारी बदली ,
अब तक ना बदली ,
अब तो तुम भी मुझे ,
स्वर्णखचित वस्त्रों से सजाओ
मेरे लिए एक अच्छा सा ,
सोने का 'नेकलेस 'ले आओ 

प्रियतम ,
क्यों परेशान हो रहे हो तुम
अगर तुम्हारे तन में ,
बढ़ रही है 'शुगर'
तो ये क्यों भूलजाते हो ,
कि तुम्हारी बढ़ रही है उमर
अब तुम पक रहे हो
और जिस तरह पके हुए फलों में ,
आ जाता है मिठास
उसी तरह तुम्हारे जीवन में भी ,
मधुरता आ रही है ख़ास
और तुम व्यर्थ ही हो रहे हो उदास
जीवन में भर कर उल्लास
सब में बाटों अपनी मिठास
सबसे लगा लो नेह
अपने आप भाग जाएगा आपका मधुमेह


मदन मोहन बाहेती'घोटू'  

Monday, April 4, 2016

         कोई छेड़े बुढ़ापे में

बहुत सी आग होती है ,जवां सूरज के सीने में ,
मगर जब ढलने लगता तो नजारे और होते है
कली खिलती ,महकती है तो मंडराते कई भंवरें,
मगर मुरझाए फूलों के वो प्यारे और  होते है
बहारों में ,दरख्तों पर ,अलग ही नूर होता है ,
मज़ा तब है कि पतझड़ में भी ,वो हमको लगे प्यारे
सभी के मन लुभाती ,हर हसीना है जवानी में,
मज़ा आता बुढ़ापे में  ,कोई लाइन  जब मारे
चाहने वालों की जिनकी ,बड़ी फेहरिश्त होती थी ,
सुने फिकरे जवानी में ,न जाने कितने दिल तोड़े
बुढ़ापे में भी रह रह कर ,सताया करती  है उनको,
जवानी वाली वो यादें ,कभी पीछा  नहीं छोड़े
गयी रौनक ,गयी मस्ती ,उमर का मोड़ ये ऐसा ,
अगर इसमें भी दीवाना ,कोई  दिल को लुटाता है
तसल्ली मिलती है दिल को ,अभी भी बाकी हम में दम ,
शगल ये छेड़खानी का ,बड़ा दिल को सुहाता  है
किसी ने मुस्करा कर के ,अगर दो बात जो करली ,
न पड़ता फर्क मियां को ,न दुनिया को ही होता शक
भले तन में नहीं हिम्मत ,बदलना स्वाद पर चाहें ,
दबी दिल की तमन्नाएं ,भड़कती रहती है जब तब
पुराने राजमहलों की भी अपनी शान होती है ,
करे तारीफ़ कोई तो,दीवारें मुस्कराती है
हम हंस हंस कर उठाते है ,मज़ा ये छेड़खानी का ,
हमें बीती हुई अपनी  ,जवानी  याद आती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


 

Sunday, February 28, 2016

        चखने का तो हमको हक़ है

हाय बुढ़ापे ,तूने आकर ,ऐसा हाल बिगाड़ दिया है
हरी भरी थी जीवन बगिया ,तूने उसे उजाड़ दिया है
उजले केश,झुर्रियां तन पर ,अब अपनी पहचान यही है
इस हालत में ,प्यार किसी का ,मिल पाना आसान नहीं है
ढंग से खड़े नहीं रह पाते ,और जल्दी ही थक  जाते    है
हुस्न और दुनिया की रंगत ,मुश्किल से ही तक पाते है
क्योंकि आँख में चढ़ा धुंधलका ,आई नज़र में है कमजोरी
गए जवानी के प्यारे दिन ,अब तो याद बची है  कोरी
कामनियां मन को ललचाती ,मगर डालती घास नहीं है
दूर दूर छिटकी रहती है,कोई फटकती  पास  नहीं है
कभी चमकती थी जो काया ,आज पुरानी सी दिखती है
इसीलिये कोई की नज़रें ,खंडहरों पर  ना टिकती  है
चबा नहीं पाते है ढंग से ,दांतों में दम  नहीं  बचा है
बहुत चाहते ,लूट न पाते ,हम खाने का आज मज़ा है
खा भी लिया ,अगर गलती से ,मुश्किल होता उसे पचाना        
उमर बढ़ी ,कमजोर हुआ तन ,उसमे कोई जोर बचा ना
पर अरमान भरा है ये दिल,अब भी धड़क रहा धक धक है
यूं ही कब तक ,रहें तरसते ,चखने का तो ,हमको हक़ है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

 

Thursday, February 18, 2016

           बदलता बचपन और आज

रह रह मुझे याद आता है,अपना सुन्दर,प्यारा  बचपन
चहल  पहल रहती थी घर में,पांच सात थे भी बहन हम
एक दूसरे  का ,आपस में  ,हरदम ध्यान रखा जाता था
धीरे धीरे ,स्वावलम्बी , बनना सबको  आ  जाता  था
देख देख कर ,एक दूजे को ,खुद ही बहुत सीख जाते थे  
लाइन लगा ,बैठ चौके में  ,गरम गरम खाना खाते थे
बड़े भाई के ,छोटे कपड़े ,माँ छोटों को पहनाती थी 
और बड़ों की सभी किताबें ,छोटों के भी काम आतीं थी
वर्किग है माँ बाप आजकल,इतना बदला रहन सहन है
अब बच्चे 'क्रैचों 'में पलते ,एकाकी,ना भाई बहन  है
भाई बहन की भीड़ भाड़ में ,तब बच्चे खुद पल जाते थे
कर आपस मे ,सलाह,मशवरा ,आगे बहुत निकल जाते थे
शिशु आजकल 'क्रैचों 'में,फिर बोर्डिंग में  डाले  जाते है
प्यार नहीं ,वैभव दिखला कर,अब बच्चे पाले जाते है
दौड़ कॅरियर की फिर उनको,कामो मे इतना उलझाती
जीवन की इस उहापोह में,आत्मीयता, पनप न पाती
हमने उनका बचपन छीना ,उसका हमे मिल रहा बदला
आज हमारी संतानो का ,है रुख काफी बदला  बदला
व्यस्त बहुत माँ बाप हो गए ,बच्चो के हित समय नहीं है
बड़े हुए तो मात पिता हित ,बच्चों को भी समय नहीं है 
जैसा किया ,भुगतते वैसा,अंतर अधिक न उनमे,हममे
हमने भेजा 'क्रैच 'बोर्डिंग ,भेज रहे वो  वृद्धाश्रम  में

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Sunday, February 14, 2016

              फ़िक्र

फ़िक्र कर रहे हो तुम उसकी,जिसे तुम्हारी फ़िक्र नहीं है
जिसके लब पर,भूलेभटके ,कभी तुम्हारा  जिक्र  नहीं है
टुकड़ा दिल का ,निभा रहा है ,बस ऐसे संतान धर्म वह
हैप्पी होली या दिवाली,या फिर हैप्पी जन्मदिवस  कह
तुम्हारे ,दुःख ,पीड़ा,चिंता ,बिमारी का ख्याल नहीं है
तुम कैसे हो,किस हालत में ,कभी पूछता ,हाल नहीं है
आत्म केंद्रित इतना है सब रिश्ते नाते भुला दिए है
जिसने अपनी ,जननी तक को ,सौ सौ आंसूं रुला दिए है
कहने को है अंश तुम्हारा ,पर लगता है बदला,बदला
या फिर तुमसे ,पूर्व जन्म का,लेता है शायद वो बदला
भूल गया सब रिश्ते नाते ,बस  मैं हूँ और मेरी मुनिया
दिन भर व्यस्त कमाई करने में सिमटी है उसकी दुनिया
इतना ज्यादा ,हुआ नास्तिक,ईश्वर में विश्वास नहीं है
अहम ,इस तरह ,उस पर हाबी ,जो वो सोचे ,वही सही है
आ जायेगी ,कभी सुबुद्धि ,बैठे हो तुम आस लगाये
कोई उसको क्या समझाए ,जो कि समझना कुछ ना चाहे
तुम कितनी ही कोशिश करलो,उसको पड़ता फर्क नहीं है
फ़िक्र कर रहे हो तुम उसकी ,जिसे तुम्हारी फ़िक्र नहीं है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Friday, February 12, 2016

   पिचत्तरवें जन्मदिवस पर

वर्ष  चौहत्तर  ऐसे  काटे
मैंने सबके सुखदुख बांटे
कुछ मित्र मिले थे अनजाने
कुछ अपने, निकले बेगाने
कोई से मन के मिले तार
कोई अपनो की पडी मार
जब थका  किसी ने दुलराया
कोई ने ढाढ़स  बंधवाया
कोई ने कर तारिफ़ जब तब
साधे अपने अपने  मतलब
कोई ने खोटी खरी  कही
मैंने हंस कर हर बात सही
कुछ रिश्तेदारी,कुछ रस्मे
कुछ झूंठे वादे ,कुछ कसमे
कुछ आलोचक तो कुछ तटस्थ
बस,यूं ही सबने रखा व्यस्त
माँ ने ममता का निर्झर बन
बरसाई आशीषें ,हर क्षण
थे प्यार लुटाते ,भाई बहन
तो दिया पिता ने अनुशासन
सहचरी ,सौम्या मिली प्रिया
जिसने हर पल पल साथ दिया
अपने में खुश सन्तान पक्ष
इच्छित सबको मिल गया लक्ष
है  आशीर्वाद साथ  माँ का
और मित्रों की शुभ आकांक्षा
ये ही मेरी संचित पूँजी
इससे बढ़ दौलत ना दूजी
जीवन गाडी, कट रहा सफ़र
चूं चरर मरर ,चूं चरर मरर

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Sunday, February 7, 2016

     पुनर्वावलोकन  -अब तक की जिंदगी का

१९४२ में,जब मैं पैदा हुआ था,
अंग्रेजों भारत छोडो का नारा गूँज रहा था
और जब मैं पांच वर्ष का हुआ और
मैंने बचपना और जिद करना छोड़ दिया ,
अंग्रेजों ने भारत छोड़ दिया
पर फिर कुछ ऐसा हुआ ,
कि देश के लोगों की जीवन पद्धति ने
एक नया मोड़ लिया
पुरानी मान्यताएं बदलने लगी
संस्कृति सिसकने लगी
पश्चिम की हवाओं ने वातावरण को
दूषित कर डाला
हमारी सोच को कलुषित कर डाला
पहले भले ही हम आजाद नहीं थे,
व्यवस्थाएं अनुशासित रही थी
रोज रोज के आंदोलन और हड़तालों से,
ग्रसित नहीं थी
आज कोंक्रीट के उगे हुए जंगलों को जब देखता हूँ,
तो याद आती है वो हरियाली ,
वो हरेभरे वृक्ष जो शीतल हवाएँ बरसाते थे
वातावरण को खुशनुमा बनाते थे
जब बोतलों में बिकता हुआ पानी देखता हूँ ,
तो कुवें से निकाला गया वो ताज़ा  जल याद आता है ,
जो कपडे से छन कर स्वच्छ हो जाता था
मिट्टी के घड़ों में संचयित कर ,
दिन भर पिया और पिलाया जाता था
अरे उन दिनों मटके रखने की जगह ,
'पिरण्डे ' को भी पूजा जाता था
लोग गर्मियों में प्याऊ लगवा कर ,
मुफ्त प्यासों की प्यास बुझा कर पुण्य कमाते थे
बढे हुए प्रदूषण को देख कर ,
याद आते है बचपन के वो दिन
जब आसमान का नीला रंग ,
स्पष्ट दमकता था
और आकाश में उगते हुए तारों को,
एक एक कर गिना जा सकता था
बिजली के प्रकाश से उज्ज्वलित
सड़के और घरों को देख कर याद आती है
उन टिमटिमाते दियों  और लालटेनों की ,
जो अँधियारे घरों को ,प्रकाशमान करते थे
और सर्दियों में ,पूरे परिवार के लोग,
अंगीठी के आसपास बैठ,
मूंगफलियां खाया करते थे
मुझे याद आते है वो दिन ,
जब खाना बनाते वक़्त ,
माँ,पहली रोटी गाय के लिए बनाती थी
और बचे खुचे आटे से,
कुत्ते की रोटी बनाई जाती थी
बासी खाना खाया  नहीं जाता था
और रसोईघर को रोज धोया जाता था
मुझे वो बीते हुए दिन बहुत सताते  है
जब आज हम ,
गायकुत्ते की तो छोडो ,खुद भी ,
तीन चार दिन पुराने ओसने हुए,
फ्रिज में रखे हुए  आटे की ,
रोटियां खाते है
आज,नन्हे नन्हे बच्चों को ,
अपने झुके हुए कन्धों पर ,
भारी भारी बस्ता लादे  देख कर
अपने स्कूल के दिन याद आते है
भले ही हम टाटपट्टी पर बैठ कर पढ़ते थे ,
हमारे बस्ते हलके होते थे
और बच्चों या उनके मातापिताओं पर
होमवर्क का कोई बोझ नहीं पड़ता  था
और बचपन हँसते , खेलते मस्ती में कटता था
समझ में नहीं आता ,
इतना बदलाव कैसे आ गया है
हम बदल गए है
हमारी मानसिकता बदल गयी है
प्रकृती बदल गयी है
जीवन की धारणाएं बदल गयी है
हम भावनाओं  के बंधन से उन्मुक्त होकर ,
ज्यादा व्यवाहरिक होते जा रहे है
संयुक्त परिवार टूटते जा रहे है
हमारी आस्थाएं दम तोड़ रही है
हम दो और हमारे दो के कल्चर ने ,
सारे रिश्ते और नातों को भुला दिया है
कहने को तो हमने बहुत प्रगति करली है,
पर इस प्रगति ने हमे रुला दिया है
पिछले चौहत्तर वर्षों में ,
मैंने दुनिया को इस तरह बदलते देखा है
कि मेरे काले बाल तो सफ़ेद हो गए ,
पर दुनिया ,जो कभी सफेद थी,
काली होती जा रही है
और  ये ही बात मुझे बहुत सता रही है
शुभम भवतु

मदन मोहन बाहेती 'घोट
      रंगीन मिज़ाजी

दिन भर तपने वाला सूरज भी,
रोज शाम जब ढलता है ,
रंगीन मिज़ाज़ हो जाता है
और बदलियों के आँचल पर ,
तरह तरह के रंग बिखराता है
तो क्यों न हम,
अपने जीवन की,
 ढलती उम्र के सांध्यकाल में
रंगीनियाँ लाये
जाते जाते  जीवन का ,
पूरा आनंद उठायें
अंततः रात तो आनी  ही है

घोटू

Tuesday, February 2, 2016

 तुम बेगाने हो जाओगे
 
कोई बेगाने को इतना  अपनाओगे
कि अपनों से ,तुम बेगाने हो जाओगे
नौ महीने तक रखा कोख में ,पाला पोसा
सच्चे मन से ,तुमको अपना प्यार परोसा
उस माँ का भी तोड़ दिया दिल और भरोसा
बुरा भला कह ,उसको ही करते हो कोसा
बेटे ,सपने में भी कभी नहीं सोचा था ,
ऐसे हो जाओगे, इतने बदल जाओगे
कि अपनों से तूम बेगाने हो जाओगे
इतने वर्षों तक तुमको प्यारी लगती थी
वो माँ जो तुमको सबसे न्यारी लगती थी
चार दिनों ,पत्नी सुख पा,इतने पगलाए
उससे अच्छी कोई तुम्हे नज़र ना आये
प्यार सभी ही करते है अपनी पत्नी से ,
लेकिन तुम इतने दीवाने हो जाओगे
कि अपनों से तुम बेगाने हो जाओगे
अपने सारे भाई बहन का प्यार भुलाया
किया पिता ने इतना सब उपकार भुलाया
पढ़ा लिखा कर तुम्हे बनाया जिसने लायक
आज उन्ही की बातें लगती तुमको बक बक
मैं और मेरी मुनिया में सीमित कर दुनिया ,
शादी कर तुम इतने स्याने हो जाओगे
कि अपनों से तुम बेगाने हो जाओगे

मदन मोहन बाहेती;घोटू' 
           कितने दिन जीवन बाकी है

नहीं पता यह मौत किसी को कब आ जाए ,
        नहीं पता यह कितने दिन जीवन बाकी है
नहीं किसी को कभी पता यह लग पाता है,
       कितने दिन तक ,साँसों की सरगम बाकी है
फिर भी उलझे बैठें है दुनियादारी मे ,
       परेशान है ,सोच रहे है कल ,परसों की
है कितनी अजीब फितरत इन्सां की देखो,
      कल का नहीं भरोसा ,बात करे बरसों की
मोहजाल में फंसे हुए,माया में उलझे ,
      जाने क्या क्या ,लिए लालसा भटक रहे है
अपनी सभी कमाई धन दौलत ,वैभव में ,
     रह रह कर के ,प्राण हमारे अटक रहे है
धीरे धीरे ,क्षीण हो रही ,जर्जर काया ,
      कई व्याधियों ने घेरा है, तन पीड़ित है
साथ समय के ,बदल रहा व्यवहार सभी का ,
       अपनों के बेगानेपन से मन पीड़ित है
ना ढंग से कुछ खा पाते ना पी पाते है ,
      फिर भी मन में चाह ,और हम जी ले थोड़ा
नज़र क्षीण है,याददास्त कमजोर पड़  गयी,
      लोभ मोह ने पर अब तक पीछा ना छोड़ा
पता नहीं यह मानव मन की क्या प्रकृती है,
     कृत्तिम साँसे लेकर कब तक चल  पायेगा
जिस दिन तन से उड़ जाएंगे प्राणपंखेरू ,
     हाड़मांस का पिंजरे है तन  ,जल जाएगा
तो क्यों ना जितने दिन शेष बचा है जीवन ,
     उसके एक एक पल का,जम कर लाभ उठायें
हंसी ख़ुशी से जिए ,तृप्त कर निज तन मन को,
    जितना भी हो सकता ,सब में ,प्यार लुटाएं     
सभी जानते,दुनिया में,यह सत्य अटल है,
    माटी में ही माटी का संगम बाकी है
नहीं पता यह मौत किसी को कब आ जाए,
   नहीं पता यह कितने दिन जीवन बाकी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'