Sunday, September 29, 2013

              इन्टेरियर

एक ज़माना होता था जब हम ,
अपने दिवंगत पुरखों को करते थे याद
श्रद्धानत होकर के ,करते थे श्राद्ध
अपने घरों में उनकी तस्वीर टांगा  करते थे
पुष्पमाला चढ़ा ,आशीर्वाद माँगा करते थे
पर आज के इस युग में
ढकोसला कहलाती है ये रस्मे
नयी पीढी ,अक्सर ये तर्क करती है
ब्राह्मण को भोजन कराने  से,
दिवंगत आत्मा को,तृप्ति कैसे मिलती है
आजकल के   सुसज्जित घरों में ,
दिवंगत पुरखों की कोई भी तस्वीर को,
नहीं लटकाया जाता है
क्योंकि इससे ,घर का,
 'इन्टेरियर 'ही बिगड़ जाता है
सच तो ये है कि पाश्चात्य संस्कृति का,
रंग आधुनिक पीढी पर इतना चढ़ गया है
कि इस भौतिकता के युग में,
उनका 'इन्टेरियर'ही बिगड़ गया है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Thursday, September 26, 2013


             श्रद्धा और श्राद्ध

हम अपने पुरखों को,पुरखों के पुरखों को,
                  साल में पंद्रह दिन ,याद किया करते है
ब्राह्मण  को हम प्रतीक,मान कर के,पितरों का,
                 पितृ पक्ष में उनको ,तृप्त  किया  करते है
श्राद्ध कर श्रद्धा से,तर्पण कर पितरों का,
                 मातृ शक्ति का वंदन, नौ  दिन तक करते है
यह उनकी आशीषों का ही तो प्रतिफल है,
                  दसवें दिन रावण  को,मार   दिया करते  है
विदेशी कल्चर की ,दीवानी नव पीढ़ी,
                     मात पिता   के खातिर,करती है इतना बस
एक बरस में केवल,एक कार्ड दे देती ,
                        एक दिवस मातृदिवस,एक दिवस पितृ दिवस  
इक दिन वेलेंटाइन,लाल पुष्प भेंट करो,
                         बाकि दिन जी भर के,मुंह मारो इधर  उधर
पूजती है पति को,भारत की महिलाएं,
                          मानती है परमेश्वर,रखती है व्रत   दिन भर
हमारे संस्कार,बतलाते बार बार,
                          होता है सुखदायी,परम्परा का पालन
बहुत पुण्य देता है,मात पिता का पूजन,
                           श्रद्धा से पूजो तो, पत्थर भी है भगवन

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Wednesday, September 25, 2013

  जीवन- चार दिनों का या महीने भर का

बड़े भाग्य से प्राप्त हुआ है ,यह वरदान हमें इश्वर का
चार दिनों का नहीं दोस्तों,ये जीवन है महीने भर का
शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को,जैसे होता है चंद्रोदय
वैसे ही तो इस जगती में ,होता है जीवन का उद्बव
बढ़ता जाता चाँद दिनोदिन ,पूर्ण विकसता ,आती पूनम
वैसे ही विकसित होता है जीवन, पूनम मतलब यौवन
फिर होता है क्षीण दिनोदिन,चालू होता घटने का क्रम
जैसे आता हमें बुढापा ,और जर्जर होता जाता तन
हो जाता है लुप्त एक दिन ,आती है जिस तरह अमावस
कभी उसे ढक  लेते  बादल,लेते कभी राहु केतु  डस
सारा जीवन रहो चमकते ,तम हर लो धरती ,अम्बर का
चार दिनों का नहीं दोस्तों ,ये जीवन है महीने भर का

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Friday, September 20, 2013

          भूल और भूलना

जन्म देकर तुम्हारा पोषण किया ,
और बनाया वक़्त के अनुकूल है
आज क्यों  तुमने भुलाया है उन्हें,
भूलना उनको तुम्हारी भूल है
सच्चे दिल से प्यार करते है तुम्हे ,
भूल कर माँ बाप को मत भूलना
सूर्य उगता ,चमकता,ढलता भी है,
याद रख,इस बात को मत भूलना
बालपन के पल सुहाने,भोलापन,
भूलना मत ,प्रेमिका के प्यार को
भूल जाना तुम किसी की भूल को,
भूलना मत ,किसी के उपकार को
 दुश्मनी कोई करे तो भुला दो,
भूलना मत दोस्ती का नजरिया
मत भुलाना किसी के अहसान को ,
भूल जाना तुम सभी की गलतियां
भूल जाओ ,अपने सारे गमो को,
कभी खुशियाँ,कभी गम,जीवन यही
ख्याल  पल पल जो तुम्हारा रख रहा ,
उस प्रभू को भूलना किंचित  नहीं
याद रखना गलतियां ,जिनने कभी,
सफलता का पथ प्रदर्शित था किया
दूसरों के  दोष  ढूंढो  बाद में ,
पहले देखो खुद में है क्या खामियां
जवानी के जोश में मत भूलना ,
कल बुढ़ापा भी तुम्हे  तडफायेगा
चार दिन की चांदनी है जिन्दगी ,
क्या पता कब मौत का पल आयेगा
भूलना आदर्श मत,उत्कर्ष हित,
किया जो संघर्ष को मत भूलना
मातृभूमी स्वर्ग से भी बढ़ के है,
अपने भारत वर्ष को मत भूलना

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Thursday, September 19, 2013

                 गलती हमी से हो गयी

        आपने जो भी लिखा सब ठीक था ,

          पढने में गलती हमी से हो गयी

बीज बोये और सींचे प्यार से,

चाहते थे ये चमन,गुलजार हो

पुष्प विकसे ,वृक्ष हो फल से लदे,

हर तरफ केवल महकता प्यार हो

          वृक्ष लेकिन कुछ कँटीले उग गये ,

           क्या कोई गलती जमीं से हो गयी

पालने में पूत के पग दिखे थे ,

मोह का मन पर मगर पर्दा पड़ा

उसी पग से लात मारेगा हमें ,

और तिरस्कृत करेगा होकर बड़ा

            पकड़ उंगली ,उसे चलना ,पग उठा,

             सिखाया ,गलती हमी से हो गयी

हमने तो बोये थे दाने पोस्त के,

फसल का रस मगर मादक हो गया

गुरूजी ने तो सिखाया योग था,

भोग में पर लिप्त साधक हो गया

               किस पे अब हम दोष आरोपित करें,

                कमी, कुछ ना कुछ, कहीं से हो गयी 

देख कर हालात  सूखी  धरा के ,

हमने माँगी थी दुआ  बरसात की

जल बरस कर मचा देगा तबाही ,

कल्पना भी नहीं थी इस बात की

                खफा था या मेहरबां था वो खुदा
                
                या खता फिर आदमी से हो गयी

                आपने जो लिखा था ,सब सही था,

                पढने में गलती हमीं से हो गयी  

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  

Monday, September 16, 2013

        दर्द अपना किसे बांटे

बढ़ रही दिन ब दिन मुश्किल .दर्द अपना किसे बांटे
किस तरह से दिन गुजारें,किस तरह से रात काटें
उम्र की इन सीढ़ियों पर चढ़ बहुत इतरा रहे थे
जहाँ रुकते ,यही लगता ,लक्ष्य अपना पा रहे थे
किन्तु अब इस ऊंचाई पर ,शून्य सब कुछ नज़र आता
किस तरह के खेल हमसे ,खेलता है ,ये विधाता
कभी सहला प्यार करता ,मारता है कभी चांटे
किस तरह से दिन गुजारें,किस तरह से रात काटें
धूप देकर जो लुभाता ,सूर्य गोला आग का है           
चाँद देता चाँदनी पर पुंज केवल राख का है
टिमटिमा कर मोहते मन ,दूर मीलों वो सितारे
सच कहा है ,दूर के पर्वत सभी को लगे प्यारे
बहुत मुश्किल,स्वर्ग का पथ ,हर जगह है ,बिछे कांटे
किस तरह से दिन गुजारें,किस तरह से रात काटें
लोभ में जीवन गुजारा ,क्षोभ में अब जी रहे है
सुधा हित था किया मंथन,पर गरल अब पी रहे है
जिन्हें अपना समझते थे ,कर लिया सबने किनारा 
डूबते को राम का ही नाम  है अंतिम सहारा
किस तरह हम ,पार भवसागर करेंगे ,छटपटाते
किस तरह हम दिन गुजारें,किस तरह से रात काटें

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Wednesday, September 11, 2013

    दिनचर्या - बुढ़ापे की

रात बिस्तर पर पड़े ,जागे सुबह,
                      सिलसिला अब ये रोजाना हो गया है
आती है,आ आ के जाती है  चली ,
                       नींद का यूं  आना  जाना  हो गया  है
     हो गए कुछ इस  तरह हालात है
                            मुश्किलों से कटा करती रात  है
 देखते ही रहते ,टाइम क्या हुआ ,   
                             चैन से सोये  ज़माना हो गया है   
आती ही रहती पुरानी याद है,
                               कभी खांसी तो कभी पेशाब है ,
कभी इस करवट तो उस करवट कभी,
                                 रात भर यूं तडफडाना हो गया है
सुबह उठ कर चहलकदमी कुछ करी ,
                                 फिर लिया अखबार ,ख़बरें सब पढ़ी ,
बैठे ,लेटे , टी .वी देखा बस यूं ही,
                                 अब तो मुश्किल ,दिन बिताना हो गया है

मदन मोहन बाहेती'घोटू '

Tuesday, September 3, 2013

            बुढापे की झपकियाँ

बचपन में ऊंघा करते थे जब हम क्लास में,
टीचर जगाता था हमें तब चाक  मार  कर
यौवन में  कभी दफ्तरों में  आती झपकियाँ ,
देता था उड़ा नींद ,बॉस ,डाट  मार कर
लेकिन बुढ़ापा आया,जबसे रिटायर हुए ,
रहते है बैठे घर में कभी ऊंघते है हम,
कहती है बीबी ,लगता है डीयर तुम थक गए,
कह कर के सुलाती हमें ,वो हमसे प्यार कर

घोटू