Sunday, February 28, 2016

        चखने का तो हमको हक़ है

हाय बुढ़ापे ,तूने आकर ,ऐसा हाल बिगाड़ दिया है
हरी भरी थी जीवन बगिया ,तूने उसे उजाड़ दिया है
उजले केश,झुर्रियां तन पर ,अब अपनी पहचान यही है
इस हालत में ,प्यार किसी का ,मिल पाना आसान नहीं है
ढंग से खड़े नहीं रह पाते ,और जल्दी ही थक  जाते    है
हुस्न और दुनिया की रंगत ,मुश्किल से ही तक पाते है
क्योंकि आँख में चढ़ा धुंधलका ,आई नज़र में है कमजोरी
गए जवानी के प्यारे दिन ,अब तो याद बची है  कोरी
कामनियां मन को ललचाती ,मगर डालती घास नहीं है
दूर दूर छिटकी रहती है,कोई फटकती  पास  नहीं है
कभी चमकती थी जो काया ,आज पुरानी सी दिखती है
इसीलिये कोई की नज़रें ,खंडहरों पर  ना टिकती  है
चबा नहीं पाते है ढंग से ,दांतों में दम  नहीं  बचा है
बहुत चाहते ,लूट न पाते ,हम खाने का आज मज़ा है
खा भी लिया ,अगर गलती से ,मुश्किल होता उसे पचाना        
उमर बढ़ी ,कमजोर हुआ तन ,उसमे कोई जोर बचा ना
पर अरमान भरा है ये दिल,अब भी धड़क रहा धक धक है
यूं ही कब तक ,रहें तरसते ,चखने का तो ,हमको हक़ है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

 

Thursday, February 18, 2016

           बदलता बचपन और आज

रह रह मुझे याद आता है,अपना सुन्दर,प्यारा  बचपन
चहल  पहल रहती थी घर में,पांच सात थे भी बहन हम
एक दूसरे  का ,आपस में  ,हरदम ध्यान रखा जाता था
धीरे धीरे ,स्वावलम्बी , बनना सबको  आ  जाता  था
देख देख कर ,एक दूजे को ,खुद ही बहुत सीख जाते थे  
लाइन लगा ,बैठ चौके में  ,गरम गरम खाना खाते थे
बड़े भाई के ,छोटे कपड़े ,माँ छोटों को पहनाती थी 
और बड़ों की सभी किताबें ,छोटों के भी काम आतीं थी
वर्किग है माँ बाप आजकल,इतना बदला रहन सहन है
अब बच्चे 'क्रैचों 'में पलते ,एकाकी,ना भाई बहन  है
भाई बहन की भीड़ भाड़ में ,तब बच्चे खुद पल जाते थे
कर आपस मे ,सलाह,मशवरा ,आगे बहुत निकल जाते थे
शिशु आजकल 'क्रैचों 'में,फिर बोर्डिंग में  डाले  जाते है
प्यार नहीं ,वैभव दिखला कर,अब बच्चे पाले जाते है
दौड़ कॅरियर की फिर उनको,कामो मे इतना उलझाती
जीवन की इस उहापोह में,आत्मीयता, पनप न पाती
हमने उनका बचपन छीना ,उसका हमे मिल रहा बदला
आज हमारी संतानो का ,है रुख काफी बदला  बदला
व्यस्त बहुत माँ बाप हो गए ,बच्चो के हित समय नहीं है
बड़े हुए तो मात पिता हित ,बच्चों को भी समय नहीं है 
जैसा किया ,भुगतते वैसा,अंतर अधिक न उनमे,हममे
हमने भेजा 'क्रैच 'बोर्डिंग ,भेज रहे वो  वृद्धाश्रम  में

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Sunday, February 14, 2016

              फ़िक्र

फ़िक्र कर रहे हो तुम उसकी,जिसे तुम्हारी फ़िक्र नहीं है
जिसके लब पर,भूलेभटके ,कभी तुम्हारा  जिक्र  नहीं है
टुकड़ा दिल का ,निभा रहा है ,बस ऐसे संतान धर्म वह
हैप्पी होली या दिवाली,या फिर हैप्पी जन्मदिवस  कह
तुम्हारे ,दुःख ,पीड़ा,चिंता ,बिमारी का ख्याल नहीं है
तुम कैसे हो,किस हालत में ,कभी पूछता ,हाल नहीं है
आत्म केंद्रित इतना है सब रिश्ते नाते भुला दिए है
जिसने अपनी ,जननी तक को ,सौ सौ आंसूं रुला दिए है
कहने को है अंश तुम्हारा ,पर लगता है बदला,बदला
या फिर तुमसे ,पूर्व जन्म का,लेता है शायद वो बदला
भूल गया सब रिश्ते नाते ,बस  मैं हूँ और मेरी मुनिया
दिन भर व्यस्त कमाई करने में सिमटी है उसकी दुनिया
इतना ज्यादा ,हुआ नास्तिक,ईश्वर में विश्वास नहीं है
अहम ,इस तरह ,उस पर हाबी ,जो वो सोचे ,वही सही है
आ जायेगी ,कभी सुबुद्धि ,बैठे हो तुम आस लगाये
कोई उसको क्या समझाए ,जो कि समझना कुछ ना चाहे
तुम कितनी ही कोशिश करलो,उसको पड़ता फर्क नहीं है
फ़िक्र कर रहे हो तुम उसकी ,जिसे तुम्हारी फ़िक्र नहीं है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Friday, February 12, 2016

   पिचत्तरवें जन्मदिवस पर

वर्ष  चौहत्तर  ऐसे  काटे
मैंने सबके सुखदुख बांटे
कुछ मित्र मिले थे अनजाने
कुछ अपने, निकले बेगाने
कोई से मन के मिले तार
कोई अपनो की पडी मार
जब थका  किसी ने दुलराया
कोई ने ढाढ़स  बंधवाया
कोई ने कर तारिफ़ जब तब
साधे अपने अपने  मतलब
कोई ने खोटी खरी  कही
मैंने हंस कर हर बात सही
कुछ रिश्तेदारी,कुछ रस्मे
कुछ झूंठे वादे ,कुछ कसमे
कुछ आलोचक तो कुछ तटस्थ
बस,यूं ही सबने रखा व्यस्त
माँ ने ममता का निर्झर बन
बरसाई आशीषें ,हर क्षण
थे प्यार लुटाते ,भाई बहन
तो दिया पिता ने अनुशासन
सहचरी ,सौम्या मिली प्रिया
जिसने हर पल पल साथ दिया
अपने में खुश सन्तान पक्ष
इच्छित सबको मिल गया लक्ष
है  आशीर्वाद साथ  माँ का
और मित्रों की शुभ आकांक्षा
ये ही मेरी संचित पूँजी
इससे बढ़ दौलत ना दूजी
जीवन गाडी, कट रहा सफ़र
चूं चरर मरर ,चूं चरर मरर

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Sunday, February 7, 2016

     पुनर्वावलोकन  -अब तक की जिंदगी का

१९४२ में,जब मैं पैदा हुआ था,
अंग्रेजों भारत छोडो का नारा गूँज रहा था
और जब मैं पांच वर्ष का हुआ और
मैंने बचपना और जिद करना छोड़ दिया ,
अंग्रेजों ने भारत छोड़ दिया
पर फिर कुछ ऐसा हुआ ,
कि देश के लोगों की जीवन पद्धति ने
एक नया मोड़ लिया
पुरानी मान्यताएं बदलने लगी
संस्कृति सिसकने लगी
पश्चिम की हवाओं ने वातावरण को
दूषित कर डाला
हमारी सोच को कलुषित कर डाला
पहले भले ही हम आजाद नहीं थे,
व्यवस्थाएं अनुशासित रही थी
रोज रोज के आंदोलन और हड़तालों से,
ग्रसित नहीं थी
आज कोंक्रीट के उगे हुए जंगलों को जब देखता हूँ,
तो याद आती है वो हरियाली ,
वो हरेभरे वृक्ष जो शीतल हवाएँ बरसाते थे
वातावरण को खुशनुमा बनाते थे
जब बोतलों में बिकता हुआ पानी देखता हूँ ,
तो कुवें से निकाला गया वो ताज़ा  जल याद आता है ,
जो कपडे से छन कर स्वच्छ हो जाता था
मिट्टी के घड़ों में संचयित कर ,
दिन भर पिया और पिलाया जाता था
अरे उन दिनों मटके रखने की जगह ,
'पिरण्डे ' को भी पूजा जाता था
लोग गर्मियों में प्याऊ लगवा कर ,
मुफ्त प्यासों की प्यास बुझा कर पुण्य कमाते थे
बढे हुए प्रदूषण को देख कर ,
याद आते है बचपन के वो दिन
जब आसमान का नीला रंग ,
स्पष्ट दमकता था
और आकाश में उगते हुए तारों को,
एक एक कर गिना जा सकता था
बिजली के प्रकाश से उज्ज्वलित
सड़के और घरों को देख कर याद आती है
उन टिमटिमाते दियों  और लालटेनों की ,
जो अँधियारे घरों को ,प्रकाशमान करते थे
और सर्दियों में ,पूरे परिवार के लोग,
अंगीठी के आसपास बैठ,
मूंगफलियां खाया करते थे
मुझे याद आते है वो दिन ,
जब खाना बनाते वक़्त ,
माँ,पहली रोटी गाय के लिए बनाती थी
और बचे खुचे आटे से,
कुत्ते की रोटी बनाई जाती थी
बासी खाना खाया  नहीं जाता था
और रसोईघर को रोज धोया जाता था
मुझे वो बीते हुए दिन बहुत सताते  है
जब आज हम ,
गायकुत्ते की तो छोडो ,खुद भी ,
तीन चार दिन पुराने ओसने हुए,
फ्रिज में रखे हुए  आटे की ,
रोटियां खाते है
आज,नन्हे नन्हे बच्चों को ,
अपने झुके हुए कन्धों पर ,
भारी भारी बस्ता लादे  देख कर
अपने स्कूल के दिन याद आते है
भले ही हम टाटपट्टी पर बैठ कर पढ़ते थे ,
हमारे बस्ते हलके होते थे
और बच्चों या उनके मातापिताओं पर
होमवर्क का कोई बोझ नहीं पड़ता  था
और बचपन हँसते , खेलते मस्ती में कटता था
समझ में नहीं आता ,
इतना बदलाव कैसे आ गया है
हम बदल गए है
हमारी मानसिकता बदल गयी है
प्रकृती बदल गयी है
जीवन की धारणाएं बदल गयी है
हम भावनाओं  के बंधन से उन्मुक्त होकर ,
ज्यादा व्यवाहरिक होते जा रहे है
संयुक्त परिवार टूटते जा रहे है
हमारी आस्थाएं दम तोड़ रही है
हम दो और हमारे दो के कल्चर ने ,
सारे रिश्ते और नातों को भुला दिया है
कहने को तो हमने बहुत प्रगति करली है,
पर इस प्रगति ने हमे रुला दिया है
पिछले चौहत्तर वर्षों में ,
मैंने दुनिया को इस तरह बदलते देखा है
कि मेरे काले बाल तो सफ़ेद हो गए ,
पर दुनिया ,जो कभी सफेद थी,
काली होती जा रही है
और  ये ही बात मुझे बहुत सता रही है
शुभम भवतु

मदन मोहन बाहेती 'घोट
      रंगीन मिज़ाजी

दिन भर तपने वाला सूरज भी,
रोज शाम जब ढलता है ,
रंगीन मिज़ाज़ हो जाता है
और बदलियों के आँचल पर ,
तरह तरह के रंग बिखराता है
तो क्यों न हम,
अपने जीवन की,
 ढलती उम्र के सांध्यकाल में
रंगीनियाँ लाये
जाते जाते  जीवन का ,
पूरा आनंद उठायें
अंततः रात तो आनी  ही है

घोटू

Tuesday, February 2, 2016

 तुम बेगाने हो जाओगे
 
कोई बेगाने को इतना  अपनाओगे
कि अपनों से ,तुम बेगाने हो जाओगे
नौ महीने तक रखा कोख में ,पाला पोसा
सच्चे मन से ,तुमको अपना प्यार परोसा
उस माँ का भी तोड़ दिया दिल और भरोसा
बुरा भला कह ,उसको ही करते हो कोसा
बेटे ,सपने में भी कभी नहीं सोचा था ,
ऐसे हो जाओगे, इतने बदल जाओगे
कि अपनों से तूम बेगाने हो जाओगे
इतने वर्षों तक तुमको प्यारी लगती थी
वो माँ जो तुमको सबसे न्यारी लगती थी
चार दिनों ,पत्नी सुख पा,इतने पगलाए
उससे अच्छी कोई तुम्हे नज़र ना आये
प्यार सभी ही करते है अपनी पत्नी से ,
लेकिन तुम इतने दीवाने हो जाओगे
कि अपनों से तुम बेगाने हो जाओगे
अपने सारे भाई बहन का प्यार भुलाया
किया पिता ने इतना सब उपकार भुलाया
पढ़ा लिखा कर तुम्हे बनाया जिसने लायक
आज उन्ही की बातें लगती तुमको बक बक
मैं और मेरी मुनिया में सीमित कर दुनिया ,
शादी कर तुम इतने स्याने हो जाओगे
कि अपनों से तुम बेगाने हो जाओगे

मदन मोहन बाहेती;घोटू' 
           कितने दिन जीवन बाकी है

नहीं पता यह मौत किसी को कब आ जाए ,
        नहीं पता यह कितने दिन जीवन बाकी है
नहीं किसी को कभी पता यह लग पाता है,
       कितने दिन तक ,साँसों की सरगम बाकी है
फिर भी उलझे बैठें है दुनियादारी मे ,
       परेशान है ,सोच रहे है कल ,परसों की
है कितनी अजीब फितरत इन्सां की देखो,
      कल का नहीं भरोसा ,बात करे बरसों की
मोहजाल में फंसे हुए,माया में उलझे ,
      जाने क्या क्या ,लिए लालसा भटक रहे है
अपनी सभी कमाई धन दौलत ,वैभव में ,
     रह रह कर के ,प्राण हमारे अटक रहे है
धीरे धीरे ,क्षीण हो रही ,जर्जर काया ,
      कई व्याधियों ने घेरा है, तन पीड़ित है
साथ समय के ,बदल रहा व्यवहार सभी का ,
       अपनों के बेगानेपन से मन पीड़ित है
ना ढंग से कुछ खा पाते ना पी पाते है ,
      फिर भी मन में चाह ,और हम जी ले थोड़ा
नज़र क्षीण है,याददास्त कमजोर पड़  गयी,
      लोभ मोह ने पर अब तक पीछा ना छोड़ा
पता नहीं यह मानव मन की क्या प्रकृती है,
     कृत्तिम साँसे लेकर कब तक चल  पायेगा
जिस दिन तन से उड़ जाएंगे प्राणपंखेरू ,
     हाड़मांस का पिंजरे है तन  ,जल जाएगा
तो क्यों ना जितने दिन शेष बचा है जीवन ,
     उसके एक एक पल का,जम कर लाभ उठायें
हंसी ख़ुशी से जिए ,तृप्त कर निज तन मन को,
    जितना भी हो सकता ,सब में ,प्यार लुटाएं     
सभी जानते,दुनिया में,यह सत्य अटल है,
    माटी में ही माटी का संगम बाकी है
नहीं पता यह मौत किसी को कब आ जाए,
   नहीं पता यह कितने दिन जीवन बाकी है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'