Wednesday, November 25, 2015

          माँ की पीड़ा

बेटा,तेरी ऊँगली पकड़े ,तुझे सिखाती थी जब चलना,
मैंने ये न कभी सोचा था , ऊँगली मुझे दिखायेगा तू 
माँ माँ कह कर,मुझको पल भर ,नहीं छोड़ने वाला था जो,
ख्याल स्वपन में भी ना आया ,इतना मुझे सताएगा तू
तुझको अक्षर ज्ञान कराया ,हाथ पकड़ कर ये सिखलाया ,
कैसे ऊँगली और अंगूठे ,से पेंसिल पकड़ी  जाती है
कैसे तोड़ी जाती रोटी ,ऊँगली और अंगूठे से ही ,
कैसे कोई चीज उठा कर , मुंह तक पहुंचाई जाती है
जब भी शंशोपज में होती ,मैं दो ऊँगली तेरे आगे ,
रखती ,कहती एक पकड़ ले,मेरा निर्णय वो ही होता
तुझे सुलाती,गा कर लोरी,इस डर से मैं चली न जाऊं ,
तू अपने नन्हे हाथों से ,मेरी उंगली   पकड़े  सोता
ऊँगली पकड़ ,तुझे स्कूल की बस तक रोज छोड़ने जाती,
बेग लादती,निज कन्धों पर,तुझ पर बोझ पड़े कुछ थोड़ा
मेला,सड़क,भीड़ सड़कों पर ,तेरी ऊँगली पकड़े रहती ,
इधर उधर तू भटक न जाए,तू मुझको देता था  दौड़ा   
मैं ये  जो इतना करती  थी ,मेरी ममता और स्नेह था,
और कर्तव्य समझ कर इसको,सच्चे दिल से सदा निभाया
जब वृद्धावस्था आएगी,  तब तू मुझे सहारा देगा  ,
हो सकता है  भूले भटके ,ऐसा ख्याल जहन  में आया
बड़े चाव से हाथ तुम्हारा ,थमा दिया था  बहू हाथ में ,
मैं थोड़ी निश्चिन्त हुई थी, अपना ये कर्तव्य निभा कर
मेरी ऊँगली  छोड़ नाचने ,लगा इशारों पर तू उसके ,
मुझको लगा भूलने जब तू,पीड हुई,ठनका मेरा सर
लेकिन मैंने टाल दिया था  ,क्षणिक मतिभ्रम ,इसे समझ कर,
सोचा जोश जवानी का है ,धीरे धीरे समझ आएगी
फिर से कदर करेगा माँ की,तू अपना कर्तव्य समझ कर,
मेरी शिक्षा ,संस्कार की,मेहनत व्यर्थ नहीं जायेगी
लेकिन तूने मर्यादा की ,लांध दिया सब सीमाओं को ,
ऐसे मुझे तिरस्कृत करके ,शायद चैन न पायेगा तू
बेटा तेरी ऊँगली पकड़े,तुझे सिखाती थी जब चलना ,
मैंने ये न कभी सोचा था ,ऊँगली मुझे दिखायेगा  तू

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


Monday, November 16, 2015

           ब्रह्म वाक्य

अपनी संतानो से उपेक्षित,
 वरिष्ठजनो ने करवाया  यज्ञ बड़ा
जिसके  प्रभाव से ब्रह्माजी को,
प्रकट हो  स्वयं धरती पर आना पड़ा
उन्होंने आकर प्रश्न किया ,
भक्तों मुझे किसलिए किया याद 
यजमानो  ने कहा ,
प्रभु,आपने ये कैसी बनाई है औलाद
अपने जन्मदाताओं को ,
धता दिखा देती है,शादी के बाद
बिलकुल ख्याल नहीं करती ,
तिरस्कृत  कर दिल तोड़ देती है
उन्हें बुढ़ापे में तड़फ़ने के लिए ,
अकेला छोड़ देती है
आपने ही तो उन्हें बनाया है
पर उनके दिमाग में ,
पितृभक्ती वाला प्रोग्राम नहीं लगाया है
ब्रह्माजी बोले मैं  खुद हैरान हूँ
दुखी और परेशान हूँ
मेरे इस उत्पाद में जरूर कुछ कमी है भारी
पर अब तक ठीक ही नहीं हो पा रही ,
ये निर्माता को भूलने की बिमारी
इसे सुधारने का मेरा हर प्रयास व्यर्थ जाता है
क्योंकि शादी के बाद ,
उसमे  'पत्नी' नाम का'वायरस' लग जाता है
वैसे मैंने आप लोगों का भी निर्माण किया है
पर क्या आपने कभी ,मेरी ओर ध्यान दिया है
पालनकर्ता विष्णु के अवतारों की भी पूजा करते है
राम राम और कृष्ण कृष्ण जपते  है
हर्ता शिवजी से डर कर उन्हें ध्याते है
पूरे सावन भर जल चढ़ाते है
और तो और उनकी पत्नी दुर्गा को ,
वर्ष में दो बार नवरात्री में पूजा जाता है
विष्णु पत्नी लक्ष्मी की पूजा के  लिए भी,
दीपावली का त्योंहार आता है
सब ही देवी देवताओं  के पूजन और व्रत के लिए ,
वर्ष में कोई ना कोई दिन नियत है 
पर मेरे लिए ,न कोई दिन है ,
न पूजन होता है ,न कोई व्रत है
सभी  के देवताओं के पूरे देश में मंदिर अनेक है
पर पूरे विश्व में,मेरा मंदिर ,बस पुष्कर में एक है
तुम मेरी संतान हो पर तुमने ,
मेरी जो अवहेलना की है ,ये उसी का परिणाम है
कि तुम्हारी अवहेलना करती ,तुम्हारी संतान है
ये दुनिया का नियम है ,इस हाथ दो,उस हाथ लो
मैं तुम्हारा ख्याल रखूंगा ,तुम मेरा ख्याल रखो

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Sunday, October 4, 2015

           दीवानगी -तब भी और अब भी

गुलाबी गाल चिकने थे,नज़र जिन पर फिसलती थी,
        अब उनके गाल पर कुछ पड़ गए है,झुर्रियों के सल
इसलिए देखता जब हूँ ,नज़र उन पर टिकी रहती ,
        फिसल अब वो नहीं पाती ,अटक जाती है झुर्री  पर
गजब का हुस्न था उनका ,और जलवा भी निराला था,
        तरस जाते थे दरशन को,देख तबियत मचलती थी
हुई गजगामिनी है वो ,हिरण सी चाल थी जिनकी ,
       ठिठक कर लोग थमते थे ,ठुमक कर जब वो चलती थी
जवानी में गधी  पर भी ,सुना है नूर चढ़ता है,
        असल वो हुस्न ,जो ढाता ,बुढ़ापे में ,क़यामत  है
हम तब भी थे और अब भी है ,दीवाने उनके उतने ही,
      आज भी उनसे करते हम,तहेदिल से मोहब्बत  है
आज भी सज संवर कर वो,गिराती बिजलियाँ हम पर ,
      उमर के साथ ,चेहरे पर ,चढ़ा अनुभव का पानी है
जानती है ,किसे घायल ,करेंगे तीर नज़रों के ,
       उन्हें मालूम ,किस पर कब,कहाँ बिजली गिरानी है
उमर के संग बदल जाता, नज़रिया आदमी का है ,
       उमर  बढ़ती तो आपस में ,दिलों का प्यार है बढ़ता
बुढ़ापे में ,पति पत्नी,बहुत नज़दीक आ जाते ,
          समर्पित ,एक दूजे पर ,बढ़ा करती है निर्भरता

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Friday, September 25, 2015

           वृद्धों का सन्मान करो तुम

भूखे को भोजन करवाना,और प्यासे की प्यास बुझाना ,
अक्सर लोग सभी कहते है ,बड़ा पुण्यदायक  होता है
बड़ी उमर का त्रास झेलते ,जो   लाचार ,दुखी,एकाकी,
वृद्धों का सन्मान करो तुम ,ये तो उनका हक़ होता है
बूढ़े वृक्ष ,भले फल ना दें ,शीतल छाया तो देते है,
उनकी डाल डाल पर पंछी,नीड बना चहका करते है
बहुत सीखने को है उनसे ,वे अनुभव के गुलदस्ते  है,
फूल भले ही सूख गए हो,वो फिर भी महका करते है
कभी बोलकर के तो देखो , उनसे मीठे बोल प्यार के ,
 उनकी धुंधली सी  आँखों में , आंसूं  छलक छलक आएंगे
उन्हें देख कर मुंह मत मोड़ो ,सिरफ़ प्यार के प्यासे है वो,
 गदगद होकर ,विव्हल होकर,वो आशीषें बरसाएंगे
एक मधुर मुस्कान तुम्हारी,उनको बहुत सुखी करदेगी, 
ये भी काम पुण्य का है इक,हर्षित अगर उन्हें कर दोगे
ये मत भूलो ,आज नहीं कल,ये ही होगी गति तुम्हारी ,
कोई  बोले बोल प्यार के , तब  शायद तुम भी तरसोगे 
इसीलिए जितना हो सकता ,उतना उनका ख्याल रखो तुम,
 इससे   पुण्य बहुत मिलता है  ,इसमें जरा न शक होता  है
भूखे को भोजन करवाना,और प्यासे की प्यास बुझाना ,
अक्सर लोग सभी कहते है,बड़ा पुण्यदायक   होता है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Thursday, September 3, 2015

      दो क्षणिकाएँ
             १
वो बेटा ,
जो होता है माँ बाप की आँखों का तारा,
जिसमे उनके प्राण अटकते है
बूढ़े होने पर वो ही माँ बाप ,
उस बेटे की आँखों में खटकते है
               २
वृक्ष की डाल ,
जब फलों से लद  जाती है ,
थोड़ी झुक जाती है
आदमी ,बुढ़ापे में ,
जब अनुभव से लद जाता है,
उसकी कमर झुक जाती है
समझदार ,वो कहलाते है
जो लदे  हुए फलों का
और बुढ़ापे के अनुभवो का ,
फायदा उठाते है

घोटू 

Saturday, July 25, 2015

         हम कितने पागल है

बुढ़ापे में अपने को परेशान करते हैं 
बीते हुए जमाने को  याद करते हैं 
संयम से संभल संभल ,रहते  हरपल हैं  
सचमुच  हम कितने पागल हैं 
अरे बीते जमाने में क्या था ,
दिन भर की खटपट
गृहस्थी का झंझट
कमाई के लिए भागदौड़
आगे बढ़ने की होड़
उस जमाने में हमने जो भी जीवन जिया
अपने लिए कब जिया
सदा दूसरों के लिए जिया
इसलिए वो ज़माना औरों का था ,
हमारा ज़माना आज है
आज हमें किसी की परवाह  नहीं ,
घर में अपना राज है
एक दूसरे को अर्पित
पूर्ण रूप से समर्पित
हमारा प्यार करने का निराला अंदाज है
न किसी की चिता ,न किसी का डर
मौज मस्ती में  डूबे हुए,बेखबर
एक दुसरे का है सहारा
आज ही तो है,ज़माना हमारा
प्यार में डूबे हुए ,रहते हर पल है
फिर भी बीते जमाने को याद करते है,
सचमुच ,हम कितने पागल है
जवानी भर,मेहनत कर ,जमा की हुई पूँजी
अपने पर खर्च करने में,दिखाते कंजूसी
ऐसी आदत पड़  गयी है,पैसा बचाने की
अरे ये ही तो उमर है ,
अपना कमाया पैसा ,अपने पर खर्च करके ,
मौज और मस्ती मनाने की
क्योंकि अपने पर कंजूसी कर के ,
तुम जो ये पैसा बचा रहे है जिनके लिए 
वो तुम्हारे,क्रियाकर्म के बाद ,
आपस में झगड़ेंगे ,इसी पैसे के लिए
 तुम जिनकी चिंता कर रहे हो  ,
उन्हें आज भी तुम्हारी परवाह नहीं ,
तो तुम क्यों उनकी परवाह करते हो
उनके भविष्य के लिए बचा कर ,
क्यों अपना आज तबाह करते हो
तुम्हे उनके लिए जो करना था ,कर दिया,
आज वो अपने पैरों पर खड़े है
अपनी अपनी गृहस्थी में मस्त है
उनके पास ,तुम्हारे लिए कोई समय नहीं ,
वो इतने व्यस्त है
तो अपनी बचत,अपने ऊपर खर्च करो ,
खूब मस्ती में जियो ,
उनकी चिता मत व्यर्थ करो
मरने के बाद ,स्वर्ग जाने के लालच में ,
यहाँ पर नरक मत झेलो
अरे स्वर्ग के मजे यहीं है ,
खुल कर खाओ,पियो और खेलो
ये  बुढ़ापे की उमर ही ,
एक ऐसी उमर होती है ,
जब आदमी अपने लिए जीता है
बिना रोकटोक के ,अपनी ही मर्जी का ,
खाता और पीता है
क्या पता फिर ये ख़ुशी के पल ,हो न हो
क्या पता,कल,हो न हो
आदमी दुनिया में उतने दिन ही जीता है
जितना अन्न जल है
फिर भी हम परेशान रहते है,
सचमुच,हम कितने पागल है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Friday, July 24, 2015

          करलें थोड़ा आराम प्रिये !

अब नहीं रहे दिन यौवन के ,उड़ते थे आसमान में जब
फिर काम काज में फंसे रहे ,फुर्सत मिल ही पाती थी कब
था बचा कोई रोमांच नहीं ,बन गया प्यार था नित्यकर्म
हम रहे निभाते पति पत्नी ,बन कर अपना ग्राहस्थ्य धर्म
दुनियादारी के चक्कर में ,हम रहे व्यस्त,कर भागदौड़
अब आया दौर उमर का ये,हम तुम दोनों हो गए प्रौढ़ 
आया ढलान पर है यौवन ,अब वो वाला उत्थान नहीं
ना कह सकता तुमको बुढ़िया,पर अब तुम रही जवान नहीं
 धीरे धीरे  हो रहा शांत  , वो यौवन  का तूफ़ान प्रिये
अब उमर ढल रही है अपनी ,करलें थोड़ा आराम प्रिये

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Tuesday, June 9, 2015

      जवानी के वो दिन

है याद जवानी के वो दिन ,था रूप तुम्हारा मायावी
मैं था दीवाना जोश भरा,अब उम्र हुई मुझ पर हावी
लेकिन मेरे दीवानेपन, का अब भी है वो ही आलम
है प्यार बढ़ गया उतना ही,जितना कि जोश हुआ है कम
अपनी धुंधलाई आँखों से ,तुम मुझे देखती मुस्का कर
मैं तब भी होता था पागल,मैं अब भी होता हूँ पागल
जब जब  भी हाथ पकड़ता हूँ  ,स्पर्श तुम्हारा मैं  पाता
बिजली सी दौड़ा करती है ,तन भी सिहरा सिहरा जाता
ये वृक्ष अभी भी खड़ा तना ,पर हरे रहे अब पान  नहीं
 फिर भी देते है मंद पवन ,माना लाते  तूफ़ान  नहीं
ये पुष्प भले ही सूख गए ,पर खुशबू अब भी है बाकी
मदिरा उतनी ही मादक है ,वो ही प्याला ,वो ही साकी
ये बात भले ही दीगर है,पीने की उतनी  ललक नहीं
गरमी अब भी अंगारों में ,माना की उतनी दहक नहीं
क्या हुआ अगर मै झुर्राया ,और त्वचा तुम्हारी है रूखी
उतना ही दूध गाय देती,हो घास हरी या   फिर  सूखी
सब जिम्मेदारी निपट गयी ,बच्चे खुश अपने अपने घर
अब बचे हुए बस हम और तुम,अवलम्बित एक दूसरे पर
अब भूल गए सब राग रंग,जीवन के बदले रंग ढंग
अब शिथिल हो रहे अंग अंग,और रूठ गया हमसे अनंग
ढल गयी जवानी,जोश गया ,मस्ती का मौसम बीत गया
आओ हम फिर से शुरू करें ,जीवन जीने का दौर  नया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'   

Friday, April 24, 2015

         बुजुर्गों की पीड़ा

हमारे एक बुजुर्ग मित्र,जो कभी हँसमुखी थे
अपने बच्चों के व्यवहार से,काफी दुखी थे
हमने समझाया,आपको रखना पडेगा थोड़ा सबर
क्योंकि ये जनरेशन गेप है याने पीढ़ियों का अंतर
इसलिए 'एडजस्ट 'करने में ही है समझदारी
खोल दो अपने दिल की बंद खिड़कियां सारी
इससे आपके नज़रिये में बदलाव आएगा
आपका दुखी जीवन संवर जाएगा
हमारी बात सुन कर ,वो गए बिफर
और बोले ये सब खिड़कियां खोलने का ही है असर
जब तक खिड़कियां बंद थी ,सुख था ,शांति थी,
घर में हमारी ही चलती थी
और खिड़कियां खोलना ही हमारी,
सब से बड़ी गलती थी
जब से बाहर की हवा के झोंके ,
खिड़कियों से अंदर आये है
ये अपने साथ धूल और गंदगी लाये है
मच्छर भिनभिनाते है ,
मख्खियां मंडराने लगी है
हमारी व्यवस्थित गृहस्थी ,
तितर बितर होकर,डगमगाने  लगी है
ये हमारे खिड़कीखोलने का ही है नतीजा
अब मक्की की रोटी नहीं बनती ,
हमारे घर आता है'पीज़ा'
इन बाहरी ताक़तों ने ,मेरे बच्चों पर ,
अपना कब्जा जमा लिया है
और धीरे धीरे मुझे बेबस बना दिया है
मेरा वजूद घटता जा रहा है ,
और मैं एक पुराने किले सा ढह गया हूँ
सिर्फ वार त्योंहार के अवसर   पर,
पाँव छूने की चीज बन कर रह गया हूँ
मेरे मन में यही बात खट रही है
जैसे जैसे मेरी उमर बढ़ रही है
मेरी  कदर घट   रही  है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'    

Tuesday, April 14, 2015

            किस्मत का चक्कर

तमन्ना थी दिल में ,बड़ी थी ये हसरत
कभी हम पे हो उनकी नज़रे इनायत
मगर घास उनने , कभी  भी  डाली,
जरा सी भी हम पे, दिखाई  न उल्फत
         अब जाके उनपे हुआ कुछ असर है
         यूं ही खामखां, ये इनायत मगर है 
         हरी घास जब सूखने लग गयी  है,
         लगे डालने हमको ,शामो-सहर है
देखो खुदा  का ये  कैसा  करम है 
वो सत्तर की है और पचोत्तर के हम है
न खाने की हिम्मत ,न ही भूख बाकी,
न ही दांतों में जब चबाने का दम है
         क्यों होता हमारे ही संग हर दफा है
         वफ़ा चाहते तब,न मिलती वफ़ा है
         थे जब बाल सर पर तो कंघी नहीं थी,
        मिली कंघी ,जब बाल सर के सफा है
खुदा तेरा इन्साफ  कैसा अजब है
नहीं मिलता खाना,लगे भूख जब है
और जब पचाने के लायक न रहते ,
पुरसता है हमको ,तू पकवान सब है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'  

Saturday, February 21, 2015

      चौहत्तरवें जन्मदिन पर -जीवन संगिनी से

उमर बढ़ रही ,पलपल,झटझट
 हुआ तिहत्तर मैं   ,तुम अड़सठ 
एक दूसरे पर अवलम्बित ,
एक सिक्के के हम दोनों पट
      सीधे सादे ,मन के सच्चे    
      पर दुनियादारी में कच्चे
     बंधे भावना के बंधन में,
    पर दुनिया कहती हमको षठ
कोई मिलता ,पुलकित होते 
याद कोई आ जाता ,रोते
तुम भी पागल,हम भी पागल,
 नहीं किसी से है कोई घट
       पलपल जीवन ,घटता जाता
      भावी कल ,गत कल बन जाता
       कभी चांदनी है पूनम की,
      कभी  अमावस का श्यामल पट
इस जीवन के  महासमर में
हरदम हार जीत के डर  में
हमने हंस हंस कर झेले है,
पग पग पर कितने ही संकट
      मन में क्रन्दन ,पीड़ा  ,चिंतन
      क्षरण हो रहा,तन का हर क्षण
      अब तो ऐसे लगता जैसे ,
      देने लगा  बुढ़ापा   आहट

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Thursday, February 12, 2015

           औलाद का सुख

हे परवरदिगार !
ये खाकसार
है तेरा बहुत शुक्रगुजार
तूने मुझे बक्शें है दो दो चश्मेचिराग
दोनों ही बेटे ,लायक,काबिल और लाजबाब
अच्छे ओहदों पर दूर दूर तैनात है
अपनी वल्दियत में  मेरा नाम लिखते है,
ये मेरे लिए फ़क्र की बात है 
लोग उनकी तारीफ़ करते है,गुण  गाते है
और वो भी जी जान से अपना फर्ज निभाते है
पर काम में इतने मशगूल  रहते है कि ,
अपने माबाप के लिए ,
बिलकुल भी समय नहीं निकाल पाते है
मेरे मौला !
तेरा तहेदिल से शुक्रिया
तूने जो भी दिया ,अच्छा दिया
पर काश!
तू मुझे दे देता एक और नालायक औलाद
जो भले ही कोई बड़ा काम तो नहीं करती ,
पर बुढ़ापे में तो रहती हमारे साथ
उम्र के इस मोड़ पर हमारा  ख्याल रखती ,
और सहारा देती ,पकड़ कर हमारा हाथ

मदन मोहन बाहेती'घोटू'
                      उम्र-ठगिनी

वक़्त चलता था हमारे साथ में ,
                      उम्र के संग तबदीली यूं  छागयी
नींद भी गुस्ताख़ अब होने लगी,
                       हम न सोये,उसके पहले आ गयी
आजकल तो ढलता है दिन बाद में,
                       उसके पहले ढलने लग जाते है हम
साँझ घिरते ,लगता छाई रात है ,
                       और उस पर नींद ढाती है सितम
सपन भी तो आजकल आते नहीं ,
                        कहते है कि आते आते थक गए
एक भी अंजाम तक पहुंचा नहीं ,
                         हमारे संग इस तरह वो पक गए   
 हमारी मर्ज़ी मुताबिक़ कल तलक,
                         चला करती थी हवायें ,बेदखल
अपनी मन मर्जी की सब मालिक हुई ,
                      बदला बदला रुख है उनका आजकल     
आफताबी चमक थी हममें कभी ,
                       पीड़ाओं की बदलियों ने  ढक  लिया
'माया ठगिनी' को बहुत हमने ठगा ,
                        'उम्र ठगिनी'ने हमें पर ठग लिया

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Monday, January 19, 2015

        उचटी नींद

जब नींद कभी उड़  जाती है
तो कितनी ही भूली बिसरी ,यादें आकर जुड़ जाती है
फिरने लगते है एक एक कर, मन की माला के मनके
तो सबसे पहले याद हमें ,आने लगते दिन बचपन के
गोबर माटी से पुता हुआ ,वह घर छोटा सा, गाँव का
गर्मी की दोपहरी में भी वो सुख पीपल की छाँव का 
वह बैलगाड़ियों पर चलना,वो रामू तैली की घानी
मंदिर की कुइया पर जाकर ,वो हंडों  में भरना पानी
करना इन्तजार आरती का,लेने  प्रसाद की एक चिटकी
रौबीली डाट पिताजी की ,माताजी की मीठी झिड़की
वो गिल्ली ,डंडे ,वो लट्टू,वो कंचे ,वो पतंग बाज़ी
भागू हलवाई की दूकान  की गरम जलेबी वो ताज़ी
निश्चिन्त और उन्मुक्त सुहाना ,प्यारा  बचपन मस्ती का
बस पलक झपकते बीत गया,जब आया बोझ गृहस्थी का
रह गया उलझ कर यह जीवन,फिर दुनिया के जंजालों में
कुछ दफ्तर में ,कुछ बच्चों में,कुछ घरवाली,घरवालों में
कुछ नमक तैल के चक्कर में ,कुछ दुःख ,पीड़ा ,बिमारी में
प्रतिस्पर्धा आगे  बढ़ने की ,कुछ झंझट ,जिम्मेदारी मे
पग पग पर नित संघर्ष किया ,तब जाकर कुछ उत्कर्ष हुआ
मन चाही मिली सफलता तो ,इस  जीवन में कुछ हर्ष हुआ
सुख तो आया ,उपभोग मगर ,कर पाऊं ,नहीं रही क्षमता
हो गया बदन था जीर्ण क्षीर्ण ,कठिनाई से लड़ता लड़ता
कुछ घेर लिया बिमारी ने ,आ गया बुढ़ापा कुछ ऐसा
कुछ बेगानी संतान हुई ,जब सर पर चढ़ ,बोला पैसा
कुछ यादें शूलों सी चुभती ,तो कुछ यादें सहलाती है
जब नींद कभी उड़ जाती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'


 

Monday, January 5, 2015

                   सुलहनामा -बुढ़ापे में

हमें मालूम है कि हम ,बड़े बदहाल,बेबस है,
 नहीं कुछ दम बचा हम में ,नहीं कुछ जोश बाकी है ,
मगर हमको मोहब्बत तो ,वही बेइन्तहां तुमसे ,
                     मिलन का ढूंढते रहते ,बहाना इस बुढ़ापे में    
बाँध कर पोटली में हम,है लाये प्यार के चांवल,
अगर दो मुट्ठी चख लोगे,इनायत होगी तुम्हारी,
बड़े अरमान लेकर के,तुम्हारे दर पे आया है ,
                      तुम्हारा चाहनेवाला ,सुदामा इस बुढ़ापे में
ज़माना आशिक़ी का वो ,है अब भी याद सब हमको,
तुम्हारे बिन नहीं हमको ,ज़रा भी चैन पड़ता था ,
तुम्हारे हम दीवाने थे,हमारी तुम दीवानी थी,
                  जवां इक बार हो फिर से ,वो अफ़साना बुढ़ापे में
भले हम हो गए बूढ़े,उमर  तुम्हारी क्या कम है ,
नहीं कुछ हमसे हो पाता ,नहीं कुछ कर सकोगी तुम ,
पकड़ कर हाथ ही दो पल,प्यार से साथ बैठेंगे ,
                   चलो करले ,मोहब्बत का ,सुलहनामा ,बुढ़ापे में

मदन मोहन बाहेती'घोटू'