Friday, January 27, 2012

बूढों का हो कैसा बसंत

बूढों का हो कैसा बसंत?
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पीला रंग सरसों फूल गयी
मधु देना अब ऋतू भूल गयी
सब इच्छाएं प्रतिकूल गयी
        यौवन का जैसे हुआ अंत
        बूढों का हो कैसा बसंत
गलबाहें क्या हो,झुकी कमर
चल चितवन, धुंधली हुई नज़र
क्या रस विलास अब गयी उमर
         लग गया सभी पर प्रतिबन्ध
          बूढों का हो कैसा बसंत
था चहक रहा जो भरा नीड़
संग छोड़ गए सब,बसी पीड़
धुंधली यादें,मन है अधीर
          है सभी समस्यायें दुरंत
          बूढों का हो कैसा बसंत
मन यौवन सा मदहोश नहीं
बिजली भर दे वो जोश नहीं
संयम है पर संतोष नहीं
        मन है मलंग,तन हुआ संत
         बूढों का हो कैसा बसंत

मदन मोहन बाहेती'घोटू'



Thursday, January 19, 2012

गुल से गुलकंद

गुल से गुलकंद
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पहले थी तुम कली
मन को लगती भली
खिल कर फूल बनी
तुम खुशबू से सनी
महकाया  जीवन
हर पल और हर क्षण
पखुडी पखुडी खुली
मन में मिश्री  घुली
गुल,गुलकंद हुआ
उर आनंद   हुआ
असर  उमर का पड़ा
दिन दिन प्यार बढ़ा
कली,फूल,गुलकंद
हरदम रही   पसंद
खुशबू प्यार भरी
उम्र यूं ही गुजरी

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Thursday, January 12, 2012

जब जब दिल में दर्द हुआ है

जब जब दिल में दर्द हुआ है
तब तब मौसम सर्द हुआ है
जब भी कोई आपके अपने,
             जिनको आप प्यार करते है
मुंह पर मीठी मीठी बातें,
            पीछे पीठ वार   करते है
जब जब भी बेगानों जैसा,
अपना ही हमदर्द हुआ है
तब तब मौसम सर्द हुआ है
रिश्तों के इस नीलाम्बर में,
               कई बार छातें है बादल                                      
होती है कुछ बूंदा बांदी,
               पर फिर प्यार बरसता निश्छल
शिकवे गिले सभी धुल जाते,
मौसम खुल बेगर्द  हुआ है
जब जब दिल में दर्द हुआ है
गलतफहमियों का कोहरा जब,
                आसमान में छा जाता है
देता कुछ भी नहीं दिखाई ,
                रास्ता नज़र नहीं आता है
दूर क्षितिज में अपनेपन का,
सूरज जब भी जर्द हुआ है
तब तब मौसम सर्द हुआ है
शीत ग्रीष्म के ऋतू चक्र के,
                         बीच बसंत ऋतू आती है  
नफरत के पत्ते झड़ते है ,
                        प्रीत कोपलें मुस्काती है
कलियों और भ्रमरों का रिश्ता,
जब खुल कर बेपर्द  हुआ  है
तब तब दिल में दर्द हुआ है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Sunday, January 8, 2012

बेबसी

बेबसी
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तमन्ना है चाँद को जाकर छुए,खड़े  ढंग से मगर हो पाते नहीं
हुस्न की खिलती बहारें देख कर,छटपटाते,पर पटा पाते नहीं
खाने के तो हम बड़े शौक़ीन है,ठीक से पर अब पचा पाते नहीं
मन तो करता खिलखिला कर हम हँसे,होंठ खुल कर मगर मुस्काते नहीं
बढ़ गयी इतनी  खराशें गले में,ठीक से अब गुनगुना पाते नहीं
बांसुरी अब हो गयी है बेसुरी,सुर बराबर भी निकल पाते नहीं
यूं तो बादल घुमड़ते है जोर से,मगर बेबस से बरस पाते नहीं
उम्र ने एसा असर है कर दिया,चाह है पर कुछ भी कर पाते नहीं

मदन मोहन बाहेती'घोटू'