Sunday, November 7, 2010

कौन कहता है की हम बूढ़े हुए हैं

आँख में इतने अनुभव बस गए हैं इसलिए कुछ धुंधलका सा छा गया है.
बाल में यूँ चांदनी बिखरी हुई है ज्यों तिमिर छट कर उजेला आ गया है.
बदन पर ये झुर्रियों के साल नहीं हैं ये कथाएँ हमारे संघर्ष की हैं.
खाई ठोकर, गिरे, संभले फिर बढे, यही गाथा हमारे उत्कर्ष की है.
हम झुके थे तुम्हें ऊंचा उठाने को इसलिए ये कमर थोड़ी झुक गयी है.
चाहते थे हमसे भी आगे बढ़ो तुम इसलिए ये गति थोड़ी रुक गयी है.
अगर ढलने लग गए तो क्या हुआ, चमकते हैं आज भी, आफ़ताब हैं.
कौन कहता है की हम बूढ़े हुए हैं, आज भी हम जवानो के बाप हैं.

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