Thursday, August 11, 2011

बुढ़ापे की थाली

बुढ़ापे की थाली
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आज थाली में कड़क सब,मुलायम कोई नहीं है
खांखरे ही खांखरे है, थेपला  कोई नहीं है
मुंह छालों से भरा है,दांत भी सब हिल रहे है,
खा सकूँ मै तृप्त हो कर,कोई रसगुल्ला नहीं है
चब नहीं पाएगी मुझसे,है कड़क ये दाल बाटी,
आज भोजन में परोसा,चूरमा  कोई नहीं है
लुभा तो मुझको रहे है,करारे घी के परांठे,
पर नहीं खा पाउँगा मै, क्या नरम दलिया नहीं है
समोसा सुन्दर बहुत है,कुरमुरी सी है पकोड़ी,
पिघल मुंह में जा पिघलती,कुल्फियां कोई नहीं है
स्वाद के थे  दीवाने अब,देख कर ही तृप्त होते,
बुढ़ापे में सिवा इसके,रास्ता कोई नहीं है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

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