Tuesday, December 13, 2011

फेंका जो पत्थर तो हमने फल दिये

आपने हमको बुलाया,आगये,आपने दुत्कार दी,हम चल दिये
हम तो है वो पेड़ जिस पर आपने,फेंका जो पत्थर तो हमने फल दिये
फलो,फूलो ,और हरदम खुश रहो,हमने आशीर्वाद ये हर पल दिये
भले ही हमको सताया,तंग किया,भृकुटियों पर नहीं हमने बल दिये
सीख चलना,थाम उंगली हमारी,अंगूठा हमको दिखा कर चल दिये
क्या पता था कि ढकेंगे उसी को ,सूर्य ने तप कर के जो बादल दिये
जब तलक था तेल हम जलते रहे,दूर अंधियारे सभी ,जल जल किये
हमको ये संतोष है कि आपने,हमको खुशियों के कभी दो पल दिये

मदन मोहन बाहेती'घोटू'



मैंने तो अपने इस घर में---,

मैंने तो अपने इस घर में---,
-----------------------------
मैंने तो अपने इस घर में,जाने क्या क्या क्या ना देखा
खुशियों को भी हँसता देखा,तन्हाई को बसता देखा 
उगते सूरज की किरणों से,मेरा घर रोशन होता था
फिर दोपहरी में धूप भरा,सारा घर आँगन होता था  
बगिया में खिलते फूलों की ,खुशबू इसको महकाती थी
हर सुबह पंछियों के कलरव की चहक इसे चहकाती थी
आती थी रोज रसोई से,सोंधी खुशबू पकवानों की
रौनक सी रहती थी हरदम,आते जाते मेहमानों की
उंगली पकडे ,नन्ही पोती,जाती थी स्कूल ,ले बस्ता
फिर नन्हा सा पोता आया,महका घर का ये गुलदस्ता
नन्हे मुस्काते बच्चों की,मीठी बातें,चंचल चंचल
उनकी प्यारी प्यारी जिद्दें,नन्हे क़दमों की चहल पहल
वो दिन कितने मनभावन थे,सुख शांति  से हमने जीये
होली पर रंग बिखरते थे,दीवाली पर जलते दीये
लेकिन फिर इसी नज़र लगी,क्या हुआ किसे,क्या बतलाये
जिस जगह गुलाब महकते थे,केक्टस के कांटे उग  आये
वो प्यार मोहब्बत की खुशबू,नफरत में आकर बदल गयी
हो गयी ख़ुशी सब छिन्न भिन्न,मेरी दुनिया ही बदल गयी
कुछ गलतफहमियां ,बहम और कुछ अहम आ गए हर मन में
अलगाववाद की दीवारें, आ खड़ी हो गयी आँगन में
हो गए अलग ,दिल के टुकड़े,जीवन में और बचा क्या था
जिस घर में रौनक रहती थी,वो सूना  सूना लगता था
उस घर के हर कोने,आँगन में,याद पुरानी बसती थी 
देखें फिर से ,रौनक,मस्ती,ये आँखें बहुत तरसती थी
दो चार बरस तन्हाई में,बस काट दिये  सहमे सहमे
मन मुश्किल से लगता था उस सूने सूने से घर में
तन्हाई देने लगी चुभन,और मन में बसने लगी पीड़
वह नीड़ छोड़ कर मैंने भी ,फिर बसा लिया निज नया नीड़
जब धीरज भी दे गया दगा,आशाओं ने दिल तोड़ दिया
थी घुटन,बहुत भारी मन से,मैंने अपना घर छोड़ दिया
देखी फूलों की मुस्काने, फिर पतझड़ भी होता देखा
मैंने तो अपने उस घर में,जाने क्या क्या क्या ना देखा

मदन मोहन बाहेती'घोटू;'

Saturday, December 3, 2011

हम भी स्वतंत्र,तुम भी स्वतंत्र

तुम भी स्वतंत्र,हम भी स्वतंत्र
-----------------------------------
तुम भी  स्वतंत्र,हम भी स्वतंत्र
भैया ये    तो  है    प्रजातंत्र
अपने अपने ढंग से जीयो,
सुख शांति का है यही मन्त्र
तुम वही करो जो तुम चाहो,
हम वही करे ,जो हम चाहे 
फिर इक दूजे के कामो में,
हम टांग भला क्यों अटकाएं
जब अलग अलग अपने रस्ते,
तो आपस में क्यों हो भिडंत
तुम भी स्वतंत्र,हम भी स्वतंत्र
तुम गतिवान खरगोश और,
हम मंथर गति चलते कछुवे
तुम  प्रगतिशील हो नवयुगीन,
हम परम्परा के पिछ्लगुवे
हम है दो उलटी धारायें,
तुम तेज बहो,हम बहे मंद
तुम भी स्वतंत्र,हम भी स्वतंत्र
तुम नव सरिता से उच्श्रंखल ,
हम स्थिर, भरे सरोवर से
तुम उड़ते बादल से चंचल,
हम ठहरे है,नीलाम्बर से
है भिन्न भिन्न प्रकृति अपनी,
हम दोनों का है भिन्न  पंथ
हम भी स्वतंत्र,तुम भी स्वतंत्र
फिर आपस में क्यों हो भिडंत

मदन मोहन बहेती'घोटू'




Friday, December 2, 2011

जैसे जैसे दिन ढलता है------

जैसे जैसे दिन ढलता है------
---------------------------
जैसे जैसे दिन ढलता है ,परछाई लम्बी होती है
जब दीपक बुझने को होता,बढ़ जाती उसकी ज्योति है
सूरज जब उगता या ढलता,
                            उसमे होती है शीतलता
इसीलिए वो खुद से ज्यादा,
                             साये को है लम्बा करता
और जब सूरज सर पर चढ़ता,
                              उसका अहम् बहुत बढ़ता है
दोपहरी के प्रखर तेज के,
                               भय से  साया भी  डरता है
परछाई बेबस होती  है,और डर कर  छोटी होती है
जैसे जैसे दिन ढलता है,परछाई लम्बी होती है
आसमान में ऊँची उड़ कर,
                               कई पतंगें इठलाती है
मगर डोर है हाथ और के,
                            वो ये बात भूल  जाती है
उनके  इतने ऊपर उठने ,
                            में कितना सहयोग हवा का
जब तक मौसम मेहरबान है,
                            लहराती है विजय पताका
कब रुख बदले हवा,जाय गिर,इसकी सुधि नहीं होती है
जैसे जैसे दिन ढलता है,परछाई लम्बी होती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Wednesday, November 23, 2011

मनाते खुशियाँ रहो तुम जियो जब तक

मनाते खुशियाँ रहो तुम जियो जब तक
------------------------------------------------
दर्द का क्या भरोसा,आ जाय जब तब
मनाते खुशियाँ रहो तुम जियो जब तक
है बड़ी अनबूझ  ये जीवन पहेली
है कभी दुश्मन कभी सच्ची सहेली
बांटती खुशियाँ,कभी सबको हंसाती
कभी पीड़ा,दर्द के  आंसू रुलाती
क्या पता कब मौत आ दे जाय दस्तक
मनाते खुशियाँ रहो तुम जियो जब तक
आसमां में जब घुमड़ कर मेघ छाते
नीर बरसा प्यास धरती की बुझाते
तो गिराते बिजलियाँ भी है कहीं पर
धूप,छाँव,सर्द ,गर्मी,सब यहीं पर
कौन जाने,कौन मौसम ,रहे कब तक
मनाते खुशियाँ रहो ,तुम जियो जब तक
कभी शीतल पवन जो मन को लुभाती
वही लू के थपेड़े बन है तपाती
धूप सर्दी में सुहाती बहुत मन को
वही गर्मी में जला देती बदन को
कौन का व्यहवार ,जाए बदल कब तक
मनाते खुशियाँ रहो तुम जियो जब तक

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Friday, November 18, 2011

माँ के सपनो में बसा-गाँव का पुराना घर

माँ के सपनो में बसा-गाँव का  पुराना घर
------------------------------------------------
मिनिट मिनिट में सारी बातें,माँ अब भूल भूल जाती है
लेकिन उसे पुराने घर की, यादें बार बार आती है
दूर गाँव में कच्चा घर था
फिर भी कितना अच्छा घर था
लीप पोत कर उसे सजाती
माटी की खुशबू थी आती
और कबेलू  वाली छत थी
बारिश में जो कभी टपकती
सच्चा  प्यार वहां पलता था
मिटटी का चूल्हा जलता था
लकड़ी और कंडे जलते थे
राखी से बर्तन मंजते थे
दल भरतिये में थी गलती
अंगारों पर रोटी सिकती
खाने को बिछता था पाटा
घट्टी से पिसता था आटा
शाम ढले फिर दिया बत्ती
चिमनी,लालटेन थी जलती
 सभी काम खुद ही करते थे
कुंए से पानी भरते थे
पीट धोवना,कपडे धुलते
बच्चे सब जाते स्कूल थे
बाबूजी    ऑफिस  जाते  थे
संझा को सब्जी लाते थे
कभी पपीता कभी सिंघाड़े
खाते थे मिल कर के सारे
ना था टी वी,ना ट्रांजिस्टर
बातें करते साथ बैठ कर
बच्चे सुना पहाड़े  रटते
होम वर्क बस ये ही करते
सुन्दर और सादगी वाला
वो जीवन था बड़ा निराला
चलता रहा समय का चक्कर
और हुआ पक्का,कच्चा घर
बिजली आई,नल भी आये
ट्रांजिस्टर,टी.वी. भी लाये
वक़्त लगा फिर आगे बढ़ने
बेटे गए नौकरी करने
और बेटियां गयी सासरे
नहीं कोई भी रहा पास रे
बस माँ थी और बाबूजी थे
संग थे दोनों,बड़े सुखी थे
लेकिन लगा वक़्त का झटका
छोड़ साथ,माँ का,हम सब का
बाबूजी थे स्वर्ग  सिधारे
और हो गया घर सूना रे
जहाँ कभी थी रेला पेली
बूढी  माँ,रह गयी अकेली
बेटे उसे साथ ले आये
पर उस घर की याद सताए
पूरा जीवन जहाँ गुजारा
ईंट ईंट चुन जिसे संवारा
बाबूजी संग ,हँसते गाते
जिसमे बसी हुई है यादे
सूना पड़ा हुआ है वो घर
पर माँ का मन अटका उस पर
और  अब माँ बीमार पड़ी है
लेकिन जिद पर रहे अड़ी है
एक बार जा,वो घर देखूं,आंसू बार बार लाती है
वो यादें,वो बीत गए दिन,बिलकुल भूल नहीं पाती है
मिनिट मिनिट में सारी बातें,माँ अब भूल भूल जाती है
लेकिन उसे पुराने घर की,यादें बार बार आती है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Friday, November 11, 2011

वृद्ध का सन्मान कर दो

बहुत पूजित वृद्ध जन है
प्यार का ऊंचा गगन है
सफलता की सीढियां है,
संस्कृति का ये चमन है
हमारे बूढ़े ,बड़े  है
मुश्किलों से ये लड़े है
डगमगाए जब कभी हम,
थामने हरदम खड़े  है
आज ये पीढ़ी पुरानी
सफलताओं की कहानी
आज हम जो है,जहाँ है,
ये इन्ही की मेहरबानी
उम्र मत तुम  प्यार देखो
भावना,उपकार देखो
करो सेवा,पाओगे तुम,,
आशीषें  हर बार देखो
जिन्होंने सारी उमर भर
लुटाया,निज नेह तुम पर
मांगते ,प्रतिकार में है,
प्यार और सन्मान केवल
उमर का यशगान  करदो
वृद्ध  का सन्मान कर दो
प्यार की ले पुष्पमाला,
अनुभवों का मान कर दो
हो ख़ुशी मुस्कायेंगे वो
भाव से भर जायेंगे वो
मुदित हो विव्हल ह्रदय से,
अश्रुजल छलकायेंगे वो

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Wednesday, November 9, 2011

रिटायर हो हम गए है

रिटायर हो हम गए है
-------------------------
रिटायर हो हम गए है
बदल सब मौसम गए है
थे कभी सूरज प्रखर हम
हो गए है आज मध्यम
आई जीवन में जटिलता
मुश्किलों से वक़्त कटता
थे कभी हम बड़े अफसर
सुना करते सिर्फ 'यस सर'
गाड़ियाँ थी,ड्रायवर थे
नौकरों से भरे घर थे
रहे चमचों से घिरे हम
रौब का था गजब आलम
जरा से करते इशारे
काम होते पूर्ण सारे
सदा रहते व्यस्त थे हम
काम के अभ्यस्त थे हम
आज कल बैठे निठल्ले
रह गए एक दम इकल्ले
हो गए है बड़े बेबस
नौकरों के नाम पर बस
पार्ट टाइम कामवाली
है बुरी हालत हमारी
काम करते हाथ से है
क्षुब्ध अपने आप से है
रौब अब चलता नहीं है
कोई भी सुनता नहीं है
आदतें बिगड़ी हुई है
कोई भी चारा नहीं है
बस जरासी पेंशन है
और हजारों टेंशन है
हो बड़े बेदम गए है
रिटायर हो हम गए है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

अपेक्षायें

अपेक्षायें
-----------
अपेक्षायें मत करो तुम,तोडती दिल अपेक्षायें
पूर्ण यदि जो ना हुई तो,तुम्हारे  दिल को दुखायें
किया यदि कुछ,किसी के हित,करो और करके भुलादो
मिलेगा प्रतिकार में कुछ,आस   ये दिल से मिटा दो
तुम्हारा कर्तव्य था यह,जिसे है तुमने निभाया
क़र्ज़ था पिछले जनम का,इस जनम में जो चुकाया
या कि फिर यह सोच करके,रखो यह संतोष मन में
इस जनम के कर्म का फल,मिलेगा अगले जनम में
या किसी के लिए कुछ कर,पुण्य है तुमने कमाये
अपेक्षायें मत करो तुम,तोडती दिल अपेक्षायें
बीज जो तुम बो रहे हो ,वृक्ष बन कर बढ़ेंगे कल
नहीं आवश्यक तुम्हारे,हर तरु में लगेंगे फल
और यदि फल लगे भी तो,मधुर होगे,तय नहीं है
तुम्हे खाने को मिलेंगे,बात ये निश्चय नहीं है
इसलिए तुम बीज बोओ,आएगी ऋतू,तब खिलेंगे
आस तुम मत करो फल की,भाग्य में होंगे,मिलेंगे
नहीं आवश्यक सजग हो,सब सपन ,तुमने सजाये
अपेक्षायें मत करो तुम, तोडती दिल अपेक्षायें

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Tuesday, November 8, 2011

हमें भी लगता बुरा है

हमें भी लगता बुरा है
------------------------
हमारी हर बात पर ही,
तुम्हे लग जाता बुरा है
मौन है हम,मगर समझो,
हमें भी लगता बुरा है
बहुत है दिल को दुखाती,
तुम्हारी रुसवाईयां  है
ह्रदय में नश्तर चुभोती,
आजकल तनहाइयाँ है
और अपने में मगन तुम,
उड़ रहे ऊंचे गगन में
अरे,हम कुछ है तुम्हारे,
ख्याल आया कभी मन में
अभी भी मन में हमारे,
प्यार का सागर उमड़ता
और तुम भूले पिघलना ,
इस कदर आ गयी जड़ता
तुम्हे करके  के याद अक्सर ,
उभरते है प्यार के स्वर
मगर हर वाणी हमारी,
लौट आती,प्रतिध्वनि कर
तुम वही हो,हम वही है,
बीच में क्यों दूरियां है
बताओ ना क्या हुआ है,
कौनसी मजबूरियां है
बहुत मिलते हम पियाले,
बहुत मिलते हम निवाले
ना मिलेंगे मगर हम से,
चाहने वाले, निराले
कभी हम संग संग चले थे,
साथ हँसते और गाते
डूब यादों के भंवर में,
डुबकियाँ है हम लगाते
साथ हम थे तो ख़ुशी थी,
जिंदगी थी मुस्कराती
बिना सहलाये हमारे,
नींद भी थी नहीं आती
हमारा स्पर्श तुमको,
लगा लगने खुरदुरा है
मौन है हम,मगर समझो,
हमें भी लगता बुरा है

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Monday, November 7, 2011

मुझे तडफाया सभी ने

मुझे तडफाया सभी ने
--------------------------
उम्र की इस बेबसी में
मुझे तडफाया सभी ने
और मुझ पर बीतती क्या,
ये नहीं सोचा किसी ने
तान कर ताने दिए और,
दिल दुखाया दिल्लगी में
कभी थे दावत उड़ाते,
आज है फांकाकशी में
उम्र ऐसे ही गयी कट,
कभी दुःख में या ख़ुशी में
मुझे दीवाना समझ कर,
यूं ही ठुकराया सभी ने
नहीं देखा पीर कितनी,
छुपी है मेरी हंसी में
नेह बांटो,खोल कर दिल,
रंजिशे क्यों आपसी में
आओ फिर से दिल मिलाएं,
क्या रखा तानाकशी में

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Friday, November 4, 2011

ऊनी कपड़ों वाला बक्सा

ऊनी कपड़ों  वाला बक्सा
-----------------------------
सर्दी का मौसम आया तो मैंने खोला,
बक्सा ऊनी  कपड़ों वाला
जो पिछले कितने महीनों से,
घर के एक सूने कोने में,
लावारिस सा पड़ा हुआ था,
हम लोग भी कितने प्रेक्टिकल होते है
जरुरत पड़ने पर ही किसी को याद करते है,
वर्ना,उपेक्षित सा छोड़ देते है
बक्से को खोलते ही,
फिनाईल  की खुशबू के साथ,
यादों का एक भभका आया
मैंने देखा ,फिनाईल की गोलिया,
जब मैंने रखी थी ,पूरी जवान थी,
पर मेरे कपड़ों को सहेजते ,सहेजते,
बुजुर्गों की तरह ,कितनी क्षीण हो गयी है
सबसे पहले मेरी नज़र पड़ी,
अपने उस पुराने सूट पर, 
जिसे मैंने अपनी शादी पर  पहना था,
और  शादी की सुनहरी यादों की तरह,
सहेज कर रखा था
मुझे याद  आया,जब तुमने पहली बार,
अपना सर मेरे कन्धों पर रखा था,
मैंने ये सूट पहन रखा था
मैंने इस सूट को,हलके से सहलाया,
और कोशिश की ढूँढने की,
तुम्हारे उन होठों  के निशानों को,
जो तुमने इस पर अंकित किये थे,
पिछले कई वर्षों से,
इसे पहन नहीं पा रहा हूँ,
क्योंकि सूट छोटा हो गया है,
पर हकीकत में,सूट तो वही है,
मै मोटा हो गया हूँ,
क्योंकि कपडे नहीं बदलते,
आदमी बदल जाता है
फिर निकला वह बंद गले वाला स्वेटर,
जिसे उलटे सीधे फंदे डाल,
तुमने  बड़े प्यार से बुना था,
और जिसे पहनने पर लगता था,
की तुमने अपने बाहुपाश मै,
कस कर जकड  लिया हो,
इस बार उस स्वेटर के  कुछ फंदे,
उधड़ते से नज़र आये
फिर दिखी शाल,
देख कर लगा,जैसे रिश्तों की चादर पर,
शक  के कीड़ों ने,
जगह जगह छेद कर दिए है,
मन मै उभर आई,
जीवन की कई ,खट्टी मीठी यादें,
भले बुरे लोग,
सर्द गरम दिन,
बनते बिगड़ते रिश्ते
फिर मैंने सभी ऊनी कपड़ों को,
धूप में फैला दिया,इस आशा से कि,
सूरज कि उष्मा से,
शायद इनमे फिर से,
नवजीवन का संचार हो जाये
मै हर साल  जब भी,
ऊनी कपड़ों का बक्सा खोलता हूँ,
चंद पल,पुरानी यादों को जी लेता हूँ

मदन मोहन बाहेती'घोटू'

Monday, September 19, 2011

आजकल मेरी आँखों पर ,बाईफोकल चश्मा है

जवानी में,
हसीनो को,
कमसिनो को
पड़ोसिनो को,
ताकते, झांकते,
मेरी दूर की नज़र कमजोर हो गयी,
और मेरी आँखों पर,
दूर की नज़र का चश्मा चढ़ गया
बुढ़ापे तक,
अपनी बीबी को,
रंगीन टी वी को
कुछ करीबी को
पास से देखते देखते ,
मेरी पास की नज़र कमजोर हो गयी,
और मेरी आँखों पर,
पास की नज़र का चश्मा चढ़ गया
जवानी के शौक,
और बुढ़ापे की आदतें,
ये उम्र का करिश्मा है
आजकल  मेरी आँखों पर ,
बाईफोकल  चश्मा है 

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Saturday, September 3, 2011

यादें

यादें
----
तेज धूप गर्मी से,
जब छत की ईंटों के,
थोड़े जोड़ उखड जाते है
और बारिश होने पर,
जोड़ों की दरारों में,
कितने ही अनचाहे,
खर पतवार निकल जाते है
जीवन की तपिश से,
जाने अनजाने में,
रिश्तों के जोड़ों में,
जब दरार पड़ती है
और बूढी आँखों से,
बरसतें है जब आंसू,
तो बीती यादों के
कितने ही खर पतवार,
बस उग उग आते है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Thursday, August 11, 2011

बुढ़ापे की थाली

बुढ़ापे की थाली
------------------
आज थाली में कड़क सब,मुलायम कोई नहीं है
खांखरे ही खांखरे है, थेपला  कोई नहीं है
मुंह छालों से भरा है,दांत भी सब हिल रहे है,
खा सकूँ मै तृप्त हो कर,कोई रसगुल्ला नहीं है
चब नहीं पाएगी मुझसे,है कड़क ये दाल बाटी,
आज भोजन में परोसा,चूरमा  कोई नहीं है
लुभा तो मुझको रहे है,करारे घी के परांठे,
पर नहीं खा पाउँगा मै, क्या नरम दलिया नहीं है
समोसा सुन्दर बहुत है,कुरमुरी सी है पकोड़ी,
पिघल मुंह में जा पिघलती,कुल्फियां कोई नहीं है
स्वाद के थे  दीवाने अब,देख कर ही तृप्त होते,
बुढ़ापे में सिवा इसके,रास्ता कोई नहीं है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Thursday, July 28, 2011

विडंबना

विडंबना
----------
हमारे संस्कार,
हमें सिखाते है,
प्रकृति की पूजा करना
हम वृक्षों को पूजते है,
वट सावित्री पर वट वृक्ष,
और आंवला नवमी पर,
आंवले के वृक्ष की पूजा करते है
और पीपल  हमारे लिए,
सदा पूजनीय रहा है
हम सुबह शाम,
सूर्य को अर्घ्य देते है
हमारे देश की महिलायें,
चाँद को देख कर  व्रत  तोड़ती है
गंगा,जमुना और सभी नदियाँ,
हमारे लिए इतनी पूजनीय है,
कि इनमे  एक डुबकी लगा कर,
हम जनम जनम के पाप से मुक्त हो जाते है
सरोवर,चाहे पुष्कर हो या अमृतसर,
यहाँ का स्नान,हमारे लिए पुण्यप्रदायक है
मिट्टी  के ढेले को भी,
लक्ष्मी मान,उसकी पूजा करते है
और पत्थर को भी पूज पूज,
भगवान बना देते है
लेकिन हमारी संस्कृति हमें,
'मातृ देवो भव' और 'पितृ देवो भव'
भी सिखाती है,
पर हम पत्थरों के पूजक,
पत्थर दिल बन कर,
अपने जीवित जनकों को,
पत्थरों की तरह,
तिरस्कृत कर रहे है;
कैसी विडम्बना है ?

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Sunday, July 24, 2011

हम सत्तर के

         हम सत्तर के
    ----------------------
हम सत्तर के
हम हस्ताक्षर बीते कल के
हम सत्तर के
कोई समझे अनुभव के घट
कोई समझे कूढा करकट
बीच अधर में लटके है हम,
नहीं इधर के ,नहीं उधर के
हम सत्तर के
कभी तेज थे,बड़े प्रखर थे
उजियारा करते दिन भर थे
अब भी लिए सुनहरी आभा,
ढलते सूरज अस्ताचल के
हम सत्तर के
याद आते वो दिन रह रह के
हम भी महके,हम भी चहके
यौवन था तो खूब उठाया,
मज़ा जिंदगी का जी भरके
हम सत्तर के
पीड़ा दी टूटे सपनो ने
हम को बाँट दिया अपनों ने
किस से करें शिकायत अपनी,
अब न घांट के और न घर के
हम सत्तर के
उम्र बढ़ी अब तन है जर्जर
लेकिन नहीं किसी पर निर्भर
स्वाभिमान  से जीवन जीते,
आभारी है परमेश्वर के
हम सत्तर के

मदन मोहन बहेती 'घोटू'


Friday, July 15, 2011

अबके सावन में

अबके   सावन में
---------------------
इन होटों पर गीत न आये, अबके सावन में
बारिश में हम भीग न पाए,अबके सावन में
अबके बस पानी ही बरसा,थी कोरी बरसात
रिमझिम में सरगम होती थी,था जब तेरा साथ
व्रत का अमृत बरसाती थी,जो हम पर हर साल,
वो हरियाली तीज न आये,अबके सावन में
तुम्हारी प्यारी अलकों का,था मेघों सा रंग
तड़ित रेख सा,दन्त लड़ी का,मुस्काने का ढंग
घुमड़ घुमड़ कर काले बादल ,छाये  कितनी बार
पर वो बादल रीत न पाये,अबके सावन में
पहली बार चुभी है तन पर,पानी की फुहार
जीवन के सावन में सूखे,है हम पहली बार
सूखा सूखा  ,भीगा मौसम,सूनी सूनी शाम,
उचट उचट कर नींद न आये,अबके सावन में

मदन मोहन बहेती'घोटू'

Tuesday, July 12, 2011

वेदनाये

  वेदनाये
------------
दुखी मन की वेदनायें,आज पीछे पड़ गयी है
ह्रदय की संवेदनायें, आज पीछे पड़ गयी है
  ओढ़ यादों की रजाई,मन बसंती ठिठुरता है
शूल जैसी चुभा करती ,स्वजनों की निठुरता है
जो कभी अपने सगे थे,पराये से हो गए है
प्यार के ,अपनत्व के सब,भाव क्यूं कर,खो गए है
मिलन की संभावनाएं,आज पीछे पड़ गयी है
दुखी मन की वेदनायें,आज पीछे पड़ गयी है
नींद क्यों जाती उचट अब ,रात के पिछले प्रहर है
भावना के ज्वार में क्यों,मन भटकता,इस कदर है
है बहुत चिंतित व्यथित मन,शांति मन की लुट रही है
घाव ताज़े या पुराने,टीस मन में उठ  रही है
कसकती कुछ भावनाए,आज पीछे पड़ गयी है
 ह्रदय की संवेदनाये, आज पीछे पड़ गयी है
हो रहा भारी बहुत मन ,ह्रदय में कुछ बोझ सा है
एक दिन  की बात ना है,सिलसिला ये रोज का है
कई बाते पुरानी आ,द्वार दिल के खटखटाती
ह्रदय में आक्रोश भरता,भावनाएं छटपटाती 
,व्यथित मन की यातनाएं,आज पीछे पड़ गयी है
दुखी दिल की वेदनाये, आज पीछे पड़ गयी है

मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Thursday, July 7, 2011

संस्कार

संस्कार
----------
हमने जब बच्चे पाले
तो विनम्रता और आज्ञाकारी
होने के संस्कार डाले
हमें ख़ुशी है ,हमारा बेटा,
अभी भी संस्कारी है
हमारा नहीं तो क्या,
अपनी पत्नी का तो आज्ञाकारी है

घोटू

जनरेशन गेप

जनरेशन गेप
---------------
हमारे बच्चे,जब छोटे होते है
हमारी उंगली पकड़ कर खड़े होते है
पर अपने पेरों पर खड़े होने के बाद,
वे अपनी खिचड़ी अलग पकाते है
उनके विचार,हमारे विचारों से मेल नहीं खाते है
और कहते है की ये जनरेशन का अंतर है
पर ये बात हमारी समझ के बाहर है
 क्योकि हमारी और उनकी उनकी ,
उम्र में तब भी था इतना ही अंतर
जब वो चलते थे हमारी उंगली पकड़ कर

घोटू

भविष्यवाणी

भविष्यवाणी
---------------
एक पेंसठ वर्षीय बुढ़िया ने,
एक ज्योतिषी को,
अपनी जन्म कुंडली दिखलाई
 ज्योतिषी ने,काफी बातें सच बतलाई
बोला अटल सुहाग है,
काया निरोग है
पर माई,तेरा दो सासों का योग है
बुढ़िया बोली,तेरी ये बात है बेकार
मेरे ससुर तो गए है स्वर्ग सिधार
पास खड़ा बूढा पति बोला,
ज्योतिषी की बात में दम है
तेरी बहू, क्या सास से कम है?

घोटू

Monday, June 13, 2011

मज़ा बुढ़ापे का

मज़ा बुढ़ापे का
-----------------
सीनियर सिटिज़न हैं,हुए रिटायर हम हैं,
                  मस्ती का आलम है,मौज हम मनाते हैं
नहीं कोई काम धाम,अब तो बस है आराम,
                   तीरथ और ग्राम ग्राम ,घूमते घुमाते हैं
आजकल निठल्ले हैं,एकदम अकेल्ले हैं,
                   पैसा जो पल्ले है,खरचते,उड़ाते है
कैसा भी हो मौसम,नहीं कोई चिंता गम,
                     मज़ा बुढ़ापे का हम,जम कर उठाते है

मदन मोहन बहेती 'घोटू'

Wednesday, June 1, 2011

मुझ को बूढा मत समझो तुम, मै जवान हूँ

मुझ को बूढा मत समझो तुम ,मै जवान हूँ
अस्ताचल की और झुक रहा आसमान हूँ
नहीं प्रखरता ,अब मुझमे स्वर्णिम आभा है
तेज घट गया और अब शीतलता ज्यादा है
भुवनभास्कर था मै,अब हूँ ढलता सूरज
पर सूरज ,सूरज था ,सदा रहेगा सूरज
जग को जीवन देने वाला ,महाप्राण हूँ
मुझ को बूढा मत समझो तुम, मै जवान हूँ

Monday, May 23, 2011

हो गयी क्या गड़बड़ी है-जो फसल सूखी पड़ी है

हो गयी क्या गड़बड़ी है-जो फसल सूखी पड़ी है
----------------------------------------------------
बीज तो मैंने उगा कर,खेत से अपने दिए थे,
फिर न जाने हो गयी क्यों,इस फसल में गड़बड़ी है
आ रहे है बालियों में,कुछ पके अनपके दाने ,
और कितनी बालियाँ है ,जो अभीखाली  पड़ी है
थी बड़ी उपजाऊ माटी,खाद भी मैंने दिया था
खेत को मैंने बड़े ही ,जतन से सिंचित किया था
हल चलाया था समय पर,करी थी अच्छी जुताई
और अच्छे बीज लेकर ,सही मुहुरत में बुवाई
उगे खा पतवार सारे ,छांट कर मैंने निकाले,
बहुत थे अरमान लेकिन ,गाज मुझ पर गिर पड़ी है
  हो गयी क्या गड़बड़ी है जो फसल सूखी पड़ी है
न तो ओले ही गिरे थे,और ना ही पड़ा पाला
सही मौसम ,सही बारिश ,सभी कुछ देखा संभाला
मगर पश्चिम की हवाएं ,कीट ऐसे साथ लायी
कर दिया बर्बाद ,फसलें,पनपने भी नहीं पायी
कर रहा हूँ जतन भरसक,लाऊ ऐसा कीटनाशक,
जो की फिर से लहलहा दे,फसल जो सूखी पड़ी है
  हो गयी क्या गड़बड़ी है जो फसल सूखी पड़ी है

 बहेती 'घोटू'

Friday, May 20, 2011

हम तो बस सूखे उपले है

हम तो बस सूखे उपले है
जिनकी नियति जलना ही है
         रोज रोज क्यों जला रहे हो
दूध,दही,घी,थे  हम एक दिन,
              भरे हुए ममता ,पोषण से
पाल पोस कर बड़ा किया था,
               प्यार लुटाया सच्चे मन से
उंगली पकड़ सिखाया चलना,
                पढ़ा लिखा कर तुम्हे सवांरा
ये कोई उपकार नहीं था,
                 ये तो था कर्तव्य  हमारा
तुम चाहे मत करो,आज भी,
                  हमें तुम्हारी बहुत फिकर है
अब भी बहुत उर्वरक शक्ति,
                  हममे,मत समझो गोबर हैं
हमें खेत में डालोगे तो,
                  फसल तुम्हारी लहलहाएगी
जल कर भी हम उर्जा देंगे,
                  राख हमारी काम आएगी  
उसे खेत में बिखरा देना,
                 नहीं फसल में कीट  लगेंगे
जनक तुम्हारे हैं ,जल कर भी,
                   भला तुम्हारा ही सोचेंगे
क्योंकि हम माँ बाप तुम्हारे,
                  तुम्हे प्यार करते है जी भर
हाँ,हम तृण थे ,दूध पिलाया
                    तुम्हे,बच गए बन कर गोबर
और अब हम हैं सूखे उपले,
                    जिन्हें जला दोगे तुम एक दिन
राख और सब अवशेषों का,
                   कर दोगे गंगा में   तर्पण
       हम तो बस सूखे उपले है,   
     जिनकी नियति जलना ही है
               रोज रोज क्यों जला रहे हो
मदन मोहन बहेती 'घोटू'

 

Monday, April 11, 2011

नीम के पत्ते

   नीम के पत्ते
-------------------
घूँट कड़वे पी लियें है ,इतने अनजाने
नीम के पत्तों में ,स्वाद लगा है आने
                        १
कभी सुना करते थे ,गानों की मधुर तान
और सोया करते थे ,चैन से खूँटी तन
भूल गये वो  गाने   ,दूर  हुई वो ताने
अब तो बस मिलते है ,सुनने को बस ताने
मधुर सुर की आशा में,जीतें है, मस्ताने
नीम के पत्तो में ,स्वाद लगा है आने
                      2
बड़े बूढ़े सबका ही ,करते थे बहुत मान
कितनेही त्याग  किये,बुजुर्गों का कहा मान
मात पिता भक्ति के,बदल गये अब माने
सुने अपने दिल की या ,बात  उनकी हम माने
हम पर क्या गुजरी है,ये तो बस हम जाने
नीम के पत्तो में ,स्वाद लगा है आने
                      ३
प्रेम का मधुर मधु ,बरसता था बन बादल
था मिठास कुछ एसा ,खुशियाँ थी बस हर पल
बीत गये है बरसों ,प्यार को अब बरसे
अब मधु की मेह नहीं ,हम मिठास को तरसे
एसा है मधुमेह ,  मीठा ना दे खाने
नीम के पत्तो में ,स्वाद लगा है आने

मदन  मोहन  बाहेती 'घोटू'                         
नोयडा  उ.प्र
.

Sunday, April 10, 2011

, बुजुर्गों से

,           बुजुर्गों से
           -------------
तुम कहते हो ,तुम बुजुर्ग हो,तुम में अनुभव भरा हुआ है
तुमने ही सींचा ,पाला है,वृक्ष तभी यह हरा हुआ है
पर अब तुम सूखे पत्ते हो ,नयी कोंपलों को खिलने दो
हम भी क्या क्या कर सकते है,मौका हमको भी मिलने दो
हम बूढें है, हम वरिष्ठ है,बंद करो, मत रोवो धोवो
खाओ,पीवो;रहो चैन से ,टी वी देख प्रेम से सोवो
खुद भी सोवो ,और चैन से ,अब तुम हमको भी सोने दो
हम निज बलबूते  निपटेंगे,जो भी होता है, होने दो
अरे पुराने कपड़ो के तो,बदले में आ जाते बरतन
और तुम खाली बर्तन जैसे,दिन भर करते रहते ,ठन ठन
बहुत दिनों तक झेल लिया है ,और झेल पाना है भारी
हरिद्वार या वृद्धाश्रम में,रहने की अब उमर तुम्हारी
               

Wednesday, April 6, 2011

दशरथ का वनवास

दशरथ का वनवास
-----------------------
हे राम तुम्हारे नाम किया ,मेने निज राज पाट सारा
तुमने पत्नी के कहने पर ,वनवास मिझे क्यों दे डाला
  त्रेता में पत्नी कहा मान, मैंने तुमको वन भेजा था
पर पुत्र वियोग कष्टप्रद था,मेरा फट गया कलेजा था
मै क्या करता मजबूरी थी,रघुकुल का मान बचाना था
जो था गलती से कभी दिया,मुझको वो वचन निभाना था
ये सच है मैंने तुम्हारा,सीता का ह्रदय दुखाया था
पर ये करके फिर मै जिन्दा,क्या दो दिन भी रह पाया था
उस युग का बदला इस युग में,ये न्याय तुम्हारा है न्यारा
हे राम तुम्हारे नाम किया ,मैंने निज राज पाट सारा
उस युग में तो सरवन कुमार,जैसे भी बेटे होते थे
करवाने तीरथ मात पिता ,को निजकंधों पर ढोते थे
थे पुरु से पुत्र ययाति के,दे दिया पिता को निज यौवन
तुम भी तो मेरा कहा मान,चौदह वर्षों भटके वन वन
माँ,पिता देवता तुल्य समझ ,पूजा करती थी संतानें
उनकी आज्ञा के पालन ही,कर्तव्य सदा जिनने जाने
उस युग का तो था चलन यही ,वह तो था त्रेता युग प्यारा
हे राम तुम्हारे नाम किया ,मैंने निज राज पाट सारा
तब वंचित मैंने तुम्हे किया,था राज पाट ,सिंहासन से
पर इस युग में ,मैंने तुमको ,दे दिया सभी कुछ निज मन से
ना मेरी तीन रानियाँ थी,ना ही थे चार चार बेटे
मेरी धन दौलत के वारिस ,तुम ही थे एक मात्र बेटे
तुम थे स्वच्छंद नहीं मैंने ,तुम पर कोई प्रतिबन्ध किया
तो फिर बतलाओ किस कारण,तुमने मुझको वनवास दिया
मेरी ही किस्मत थी खोटी,ये  दोष नहीं है तुम्हारा
हे राम तुम्हारे नाम किया ,मैंने निज राज पाट सारा
         मदन मोहन बहेती 'घोटू'


Tuesday, April 5, 2011

जीवन दर्शन -बुढ़ापे का

जीवन दर्शन -बुढ़ापे का
जब जब नयी पीढ़ी
चढ़े सफलता की सीढ़ी
         आओ हम उन्हें  प्रोत्साहन दें
पीढ़ियों का अंतर
तो बना ही रहेगा उमर भर
         उस पर ना ध्यान दें
वो अपने ढंग से
जिंदगी जीना चाहतें है,
         कोई हर्ज नहीं
क्या बच्चों की खुशियों में
सहयोग  देना
       बुजुर्गों का फर्ज नहीं
ये  सच है की उनके रस्ते,
और उनकी सोच
       तुम्हारी सोच से है भिन्न
क्यों लादते हो अपने विचार उन पर,
और न मानने पर,
        क्यों होते हो खिन्न
हर परिंदा,उड़ना सीखने पर,
         अपने हिसाब से उड़ता है
और इसे अपनी उपेक्षा समझ
          तुम्हारा मन क्यों कुढ़ता है?
किसी से अपेक्षा मत रखो ,
वर्ना अपेक्षा पूरी न होने पर ,
            दिल टूट जाता है
तुम्हारी अच्छी सलाहों को,
अपने काम में दखल समझ ,
        अपना रूठ जाता है
तुम अपने ढंग से जियो,
और उन्हें जीने दो,
            उनके ढंग से
तनाव छोड़ ,अपनी बाकी जिंदगी का,
भरपूर मजा लो,
            ख़ुशी और उमंग से
Er मदन मोहन बाहेती 'घोटू'

Sunday, March 27, 2011

आ तेरा श्रृंगार करूँ मै

आ तेरा  श्रृंगार करूँ मै
तुझको जी भर प्यार करूँ मै
बूढा  तन,सल भरी उंगलियाँ,
हीरा जड़ित अंगूठी उनमे
दोपहरी की चमक आ गयी ,
हो जैसे ढलते सूरज में
जगमग मोती की लड़ियों से ,
आजा तेरी मांग भरूं  मै
आ तेरा श्रृंगार करूँ मै
बूढ़े हाथों की कलाई पर
स्वर्णिम कंगन ,खन खन करते
टहनी पर जैसे पलाश की
सुन्दर फूल केसरी झरते
इस पतझड़ के मौसम में भी
आ बासन्ती रंग भरूं मै
आ तेरा श्रृंगार करूँ मै
मणि माला का बोझ ग्रिव्हा पर,
और करघनी झुकी कमर में
नयी नवेली सी लगने का
शौक चढ़ा है ,बढ़ी उमर में
अपनी धुंधली सी आँखों से
आ तेरा दीदार करूँ मै
आ तेरा श्रृंगार करूँ मै




Monday, February 21, 2011

सत्तरवें जन्म दिन पर


पल पल करके ,गुजर गए दिन,दिन दिन करके ,बरसों बीते
उनसित्तर की उमर हो गयी,लगता है कल परसों बीते
जीवन की आपाधापी में ,पंख लगा कर वक्त उड़ गया
छूटा साथ कई अपनों का ,कितनो का ही संग जुड़ गया
सबने मुझ पर ,प्यार लुटाया,मैंने प्यार सभी को बांटा
चलते फिरते ,हँसते गाते ,दूर किया मन का सन्नाटा
भोला बचपन ,मस्त जवानी ,पलक झपकते ,बस यों बीते
उनसित्तर की उमर हो गयी ,लगता है कल परसों बीते
सुख की गंगा ,दुःख की यमुना,गुप्त सरस्वती सी चिंतायें
इसी त्रिवेणी के संगम में ,हम जीवन भर ,खूब नहाये
क्या क्या खोया,क्या क्या पाया,रखा नहीं कुछ लेखा जोखा
किसने उंगली पकड़ उठाया,जीवन पथ पर किसने रोका
जीवन में संघर्ष बहुत था ,पता नहीं हारे या जीते
उनसित्तर की उमर हो गयी,लगता है कल परसों बीते

Saturday, February 19, 2011

उमर का आलम

उमर का हमारी ये कैसा है आलम
सत्तर का है तन और सत्रह का मन
रंगे बाल हमने,किया फेशियल है
छुपाये न छुपती,मगर ये उमर है
होता हमारा ये दिल कितना बेकल
हसीनाएं कहती,जब बाबा या अंकल
करे नाचने मन,मगर टेढ़ा आँगन
उमर का हमारी ये कैसा है आलम
बहुत गुल खिलाये ,जवानी में हमने
उबलता था पानी,लगी बर्फ जमने
भले ही न हिम्मत बची तन के अन्दर
गुलाटी को मचले है ,मन का ये बन्दर
कटे पर है ,उड़ने को बेताब है मन
उमर का हमारी ,ये कैसा है आलम

Thursday, February 17, 2011

ये उमर बुढ़ापे की भी होती कमाल है ,

कहने को तो हम हो रहे सत्तर की उमर के
दिल की उमर अभी भी सिर्फ सत्रह साल है
है बदन बदहाल और तन पर है बुढ़ापा ,
लेकिन मलंगी मन में ,मस्ती है ,धमाल है
हो जाए बूढा कितना भी लेकिन कोई बन्दर,
ना भूले मारने का गुलाटी खयाल है
जब भी कभी हम देखते है हुस्न के जलवे
बासी कढी में फिर से आ जाता उबाल है
ये बात सच है आजकल गलती है देर से,
लेकिन कभी ना कभी तो गल जाती दाल है
ना कोई चिंता है किसी की ,ना ही फिकर है
ये उमर बुढ़ापे की भी होती कमाल है










,

Sunday, January 30, 2011

संतानों से

संतानों से
याद करें जो तुमको हर पल
उनको भी देदो तुम कुछ पल
जिससे उनका दिल खिल जाए
थोड़ी सी खुशियाँ मिल जाए
उनके ढलते से जीवन को ,
मिले प्यार का थोडा संबल
उनको भी दे दो तुम कुछ पल
आज गर्व से जहाँ खड़े हो
इतने ऊँचे हुए बड़े हो
ये उनका पालन पोषण है
और उनकी ममता का आँचल
उनको भी दे दो तुम कुछ पल
जिनने तुम पर तन मन वारे
प्यार लुटाते जनक तुम्हारे
जिनके आशीर्वाद आज भी
बरस रहें है तुम पर अविरल
याद करे तुमको जो हर पल
उनको भी दे दो तुम कुछ पल

ओह मिश्र के ग्रेट पिरेमिड

ओह मिश्र के ग्रेट पिरेमिड
तुम वृहद्ध हो ,तुम विशाल हो
तुम मानव के द्वारा निर्मित एक कमाल हो
तुम महान हो , तुम बड़े हो
आसमान में गर्व से ,सर उठाये खड़े हो
आज की प्रगतिशील पीढ़ी की तरह
तुम जितने ऊपर जाते हो
घटते ही जाते हो
तुम भी संवेदनाओं से शून्य हो
तुम्हारा दिल भी पत्थर है
तुम दोनों में बस थोडा सा अंतर है
तुम्हारे अन्दर तुम्हारे निर्माताओं का
मृत शरीर सुरक्षित है
और इस पीड़ी के हृदयों में बसने को
उनके जनकों की आत्माएं तरस रही है
और उनका मृतप्राय शरीर
घर के किसी कोने में ,
पड़ा उपेक्षित है

Tuesday, January 25, 2011

माँ तुम ऐसी गयी ,गया सब ,खुशियों का संसार

माँ तुम ऐसी गयी ,गया सब ,खुशियों का संसार
तार तार हो बिखर गया है ,ये सारा परिवार
जब तुम थी तो चुम्बक जैसी ,सभी खींचे आते थे
कितनी चहल पहल होती थी ,हंसते थे ,गाते थे
दीवाली की लक्ष्मी पूजा और होली के रंग
कोशिश होती इन मोको पर ,रहें सभी संग संग
साथ साथ मिल कर मानते थे ,सभी तीज त्योंहार
माँ ,तुम ऐसी गयी ,गया सब ,खुशियों का संसार
जब तुम थी तो ,ये घर ,घर था ,अब है तिनका तिनका
टूट गया तिनको तिनको में ,कुछ उनका ,कुछ इनका
छोटी मुन्नी ,बड़के भैया,मंझली ,छोटू ,नन्हा
अब तो कोई नहीं आता है ,सब है तनहा तनहा
एक डोर से बाँध रखा था ,तुमने ये घर बार
माँ,तुम ऐसी गयी ,गया सब खुशियों का संसार
भाई भाई के बीच खड़ी है ,नफरत की दीवारे
कोर्ट ,कचहरी,झगडे नोटिस,खिंची हुई तलवारें
लुप्त हो गया ,भाईचारा,लालच के अंधड़ में
ऐसी सेंध लगाई स्वार्थ ने ,खुशियों के इस गढ़ में
माँ तुम रूठी ,टूट गया सब ,गठा हुआ संसार
तार तार हो कर के बिखरा ,ये सारा घर बार
संस्कार की देवी थी तुम ,ममता का आँचल थी
खान प्यार की ,माँ तुम आशीर्वादों का निर्झर थी
सबको राह दिखाती थी तुम ,सुख दुःख और मुश्किल में
तुम सबके दिल में रहती थी ,सभी तुम्हारे दिल में
हरा भरा परिवार वृक्ष था ,माँ तुम थी आधार
माँ, तुम ऐसी गयी ,गया सब ,खुशियों का संसार

Sunday, January 23, 2011

हाँ हम रेल की पटरियां है

लोहे का तन ,कुंठित जीवन
जमीन से जड़ी हुई
दूर दूर पड़ी हुई
जो कभी न मिल पायी
इसी दो सखियाँ है
हाँ ,हम रेल की पटरियां है
कितनो का ही बोझ उठाती
सबको मंजिल तक पहुंचाती
सुनसान जंगलों में
या कस्बों ,शहरों में
साथ साथ भटक रही
पर हमको पता नहीं
हमारी मंजिल कहाँ है
हाँ ,हम रेल की पटरियां है
साथ साथ रह कर भी,
क्या है मजबूरियां
बनी ही रहती है ,
आपस में दूरियां
जिनकी सोच आपस में ,
कभी नहीं मिल पाती
हम ऐसी दो पीढियां है
हाँ हम रेल की पटरियां है

Saturday, January 22, 2011

हाँ हम रेल की पटरियां है

लोहे का तन ,कुंठित जीवन
जमीन से जड़ी हुई
दूर दूर पड़ी हुई
जो कभी न मिल पायी
इसी दो सखियाँ है
हाँ ,हम रेल की पटरियां है
कितनो का ही बोझ उठाती
सबको मंजिल तक पहुंचाती
सुनसान जंगलों में
या कस्बों ,शहरों में
साथ साथ भटक रही
पर हमको पता नहीं
हमारी मंजिल कहाँ है
हाँ ,हम रेल की पटरियां है
साथ साथ रह कर भी,
क्या है मजबूरियां
बनी ही रहती है ,
आपस में दूरियां
जिनकी सोच आपस में ,
कभी नहीं मिल पाती
हम ऐसी दो पीढियां है
हाँ हम रेल की पटरियां है



Sunday, January 16, 2011

हनीमून वाला पागलपन बुढ़ापे का दीवानापन बोलो इन में क्या अंतर है?

हनीमून वाला पागलपन
बुढ़ापे का दीवानापन
बोलो इन में क्या अंतर है?
एक अनजाना ,एक अनजानी
लिखने लगते नयी कहानी
कुछ उत्सुकता ,कुछ आकर्षण
ढूँढा करते है अपनापन
एक दूजे के तन में ,मन में
या अनोखे पागलपन में
थोड़े सहमे ,कुछ घबराये
आकुल व्याकुल पर शर्माए
प्रेम पुष्प करते है अर्पित
एक दूजे को पूर्ण समर्पित
हनीमून तो शुरुवात है
चालू करना नया सफ़र है
हनीमून वाला पागलपन
बुढ़ापे का दीवाना पन
देखो इनमे क्या अंतर है
और बुढ़ापे के दो साथी
एक दिया है और एक बाती
लम्बा सफ़र काट, सुस्ताते
करते याद पुरानी बातें
क्या क्या खोया ,क्या क्या पाया
किसने अपनाया, ठुकराया
एक दूजे पर पूर्ण समर्पण
वही प्रेम और दीवानापन
हैं अशक्त ,तन में थकान पर
एक दूजे की बांह थाम कर
सारा जीवन संग संग काटा
अब भी आपस में निर्भर है
हनीमून वाला पागलपन
बुढ़ापे का दीवानापन
देखो इन में क्या अंतर है

Friday, January 14, 2011

दहक बाकी है

छलकते जाम पर इतराए तू क्यों साकी है
बुझे हुए इन शोलो में दहक बाकी है
सर पर है चाँद या की चांदनी तू इन पे न जा
तेरे संग चाँद पर जाने की हवस बाकी है
बहुत बरसें है ये बादल तो कई बरसों तक
फिर से आया है सावन की बरस बाकी है
दूर से आँख चुरा लेती है ,आँखे तो मिला
देख इन बुझते चिरागों में चमक बाकी है
हम तो थे फूल गुलाबों के बहुत ही महके
सूखने लग गए है तो भी महक बाकी है
भले ही शाम है और ढलने लगा है सूरज
छाई है दूर तक लाली कि चमक बाकी है

Wednesday, January 12, 2011

असली इश्क बुढ़ापे में है

तुम जवान थी ,मै जवान था
गरम खून में तब उफान था
भरा जोश था ,नहीं होश था
हम तुम दोनों में योवन था
फिर बच्चो की जिम्मेदारी
और नोकरी की लाचारी
काम,कामना और कमाई
का जुनून और पागलपन था
और अब हम हो गए रिटायर
बच्चे खुश अपने अपने घर
बस हम और तुम दो ही बचे है
छूट गया सब जो बंधन था
फुर्सत है चिंता न फिकर है
मौज मजे की यही उमर है
असली इश्क बुढ़ापे में है
बाकी सब दीवानापन था

Saturday, January 8, 2011

पहले तो ये बात नहीं थी

पहले तो ये बात नहीं थी
जब दिल से दिल नहीं मिले हो ,
इसी कोई रात नहीं थी
तुममे हममे एक बात थी
प्यार प्यार ही था बस केवल
एक दूसरे की यादे थी
इक दूजे के सपने हर पल
याद नहीं एसा कोई पल
जब तुम मेरे साथ नहीं थी
पहले तो ये बात नहीं थी
पहले जब झगडा होता था
उसमे मीठापन होता था
तब तनाव का अंत अधिकतर
मौन समर्पण ही होता था
एक दूसरे की बांहों बिन
कटती कोई रात नहीं थी
पहले तो ये बात नहीं थी
अब तो ऐसी उम्र आ गयी
तुम अपने में मै अपने मे
मै टी वी में पिक्चर देखू
तुम उलझी माला जपने में
अलग अलग है राह हमारी
अपनी तो ये जात नहीं थी
पहले तो ये बात नहीं थी

Friday, January 7, 2011

झगडे तो अब भी होते है

झगडे तो अब भी होते है
छोटी छोटी सी बातों में
अक्सर जब अनबन होती है
एक ही बिस्तर पर दूर दूर
हम मुहं को फेरे सोते है
झगडे तो अब भी होते है
अब भी जब सजते धजते है
तो कितने सुन्दर लगते है
लेकिन उनकी तारीफ़ न की
हो खफा ,सिसकते रोते है
जब घर वालो से नज़र बचा
हम रोमांटिक हो जाते है
वो झल्लाते है ,शरमा कर
फिर बाहुपाश में होते है
हम तो सोंदर्य उपासक है
कोई सुन्दर सी महिला को
देखा और जो तारीफ़ करदी
वो जल कर पलक भिजोते है
है शुगर हमारी बढ़ी हुई
लेकिन है शोक मिठाई का
हम चुपके चुपके खाते है
तो खफा बहुत वो होते है
उनके मैके से कभी कभी
जब फोन कोई आजाता है
टी वी का वोल्यूम कम न किया
वो अपना आपा खोते है
जब उनके खर्राटे सुन कर
खुल जाती नींद हमारी है
हम उनकी नाक दबा देते
चुपचाप चैन से सोते है
जब हमको गुस्सा आता है
और ब्लड प्रेशर बढ जाता है
अक्सर हमको या फिर उनको
करने पड़ते समझोते है
झगडे तो अब भी होते है

Sunday, January 2, 2011

देखो ये घर टूट न जाये

देखो ये घर टूट न जाये
अपने तुम से रूठ न जाए
क्योकि अगर ये घर टूटेगा
अपनों का ही दिल टूटेगा
धीरे धीरे ,रिसते रिसते
पिघल जायेगे सारे रिश्ते
मुस्काती ,खिलती बगिया की
खुशबू कोई लूट न जाए
देखो ये घर टूट न जाए
पीढ़ी में अंतर होता है
ये समझो तो समझोता है
अगर चाहते बचना गम से
तो रहना होगा संयम से
पनघट पर जाने से पहले,
खुशियों का घट फूट न जाए
देखो ये घर टूट न जाए